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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
भगवान सुवर्ण वर्ण के थे, उनका शरीर पच्चीस धनुष ऊँचा था, पचपन हजार वर्ष की उनको मायु थो, दाहिने पैर में कलश का चिह्न था।
भगवान जब यौवन अवस्था को प्राप्त हए, तब पिता ने उनके विवाह का प्रायोजन किया। विवाह के हर्ष में पुरजनों ने सारा नगर सजाया । सफेद पताकाओं और बन्दनमालाओं से नगर दुलहिन की तरह सजाया गया।
राजपथों और वीथिकाओं में सुगन्धित जल का सिंचन किया गया। किन्तु जिनके लिए यह सब दीक्षा कल्याणक आयोजन हो रहा था, वे इस सबसे निलिप्त थे। वे जीवन भर भोगों से उदासीन रहे। वह
जीवनव्यापी साधना इन राग के क्षणों में भी चल रही थी। वे सोच रहे थे-वीतरागता का माहात्म्य प्रचिन्त्य है, राग में वह सुख कहाँ है। तभी उन्हें जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया और पूर्व जन्म में मपराजित विमान में भोगे हुए सुखों के बारे में सोचने लगे-जब स्वर्ग के वे भोग ही नहीं रहे तो इन नश्वर भोगों के सुख के लिए जीवन के अमूल्य समय का अपव्यय करने में कोई बुद्धिमता नहीं है। इस प्रकार भोगों से विरक्त होकर उन्होंने सम्पूर्ण प्रारम्भ परिग्रह के त्याग का संकल्प किया। तभी लौकान्तिक देवों ने पाकर भगवान को नमस्कार कर उनके संकल्प की सराहना की तथा उनसे प्रार्थना की-'भगवन् ! संसार के जीवों का कल्याण करने के लिए धर्म-तीर्थ के प्रवर्तन का प्रब काल आ पहुंचा है। भगवान दुखी प्राणियों पर करुणा करें। इस प्रकार कहकर वे देव अपने स्वर्ग में वापिस चले गये।
इन्द्रों और देवों ने पाकर भगवान का दीक्षा कल्याणक महाभिषेक किया। फिर भगवान जयन्त नामक देवोपनीत पालकी में प्रारूद होकर श्वेत दर में पहुँचे। वहाँ उन्होंने समस्त प्रारम्भ परिग्रह का त्याग करके सिद्ध भगवान को नमस्कार किया और केश लुंचन करके प्रबजित हो गए। उनके साथ में तीन सौ राजाओं ने भी सकल संयम धारण कर लिया। उस दिन अगहन सूदो एकादशी थी, अश्विनी नक्षत्र था और सायंकाल का समय था। यह संयोग को ही बात थी कि भगवान ने अपने जन्म दिन, मास, नक्षत्र और पक्ष को दीक्षा भी ग्रहण की थी। संयम के कारण भगवान को मनःपर्यय ज्ञान को भी प्राप्ति हो गई।
भगवान तीसरे दिन पारणा के लिये मिथिलापुरी में प्रविष्ट हुए। वहां नन्दिषण नामक राजा ने भगवान बो प्रामुक पाहार देकर अक्षय पुण्य का संचय किया। देवों ने पंचाश्चर्य किये।
केवलझान कल्याणक-दीक्षा लेने के पश्चात् भगवान मल्लिनाथ छद्मस्थ दशा में केवल छह दिन रहे। उन्होंने यह समय तपस्या में बिताया। फिर वे दीक्षा बन में पहुंचे और दो दिन के उपवास का नियम लेकर वे अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हो गए। वहीं पर उन्हें पौष कृष्णा द्वितीया को पुनर्वसु नक्षत्र में लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। देवों और इन्द्रों ने आकर भगवान के केवलज्ञान का उत्सव मनाया, समवसरण की रचना की। उसमें बैठकर भगवान ने दिव्यध्वनि के द्वारा धर्म-चक्र प्रवर्तन किया । अनेक मनुष्यों, देवों और तिर्यञ्चों ने भगवान का उपदेश सुनकर सम्यग्दर्शन ग्रहण किया, अनेक मनुष्यों और तिर्यंचों ने मुनि और श्रावकों के योग्य संयम धारण किया।
भगवान का संघ-भगवान के मूमि-संघ में विशाख आदि २८ गणघर थे। इनके अतिरिक्त ५५०पर्दघारी २६०१० महाविद्वान शिक्षक, २२०० अधिज्ञानी, २२०० केवलज्ञानी, १४०० बादी, २६०० विक्रिया ऋद्धिधारी, और १७५० मनःपर्ययज्ञानी थे। इस प्रकार उनके मुनियों की कुल संख्या ४०००० थी । बन्धुषेणा आदि ५५००० अजिकाय थीं। १००००० थाबक और ३००००० श्राधिकायें थीं। असंख्यात देव और संख्यात तियंञ्च उनके भक्त थे।
निर्वाण कल्याणक-भगवान अनेक देशों में विहार कर अपने उपदेश से भव्य जीवों का कल्याण करते रहे । जब उनकी प्रायु एक माह शेष रह गई, तब वे सम्मेदाचल पर पहुँचे। वहां पांच हजार मनियों के साथ उन्होंने प्रतिमा योग धारण किया और फाल्गुन शुक्ला पंचमी को भरणी नक्षत्र में संध्या के समय निर्वाण प्राप्त किया। देवों ने पाकर भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजा की।
यक्ष-यक्षिणी-इनके सेवक कुबेर यक्ष और अपराजिता यक्षिणी थे।