________________
१८३
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
निर्वाण कल्याणक-भगवान बहुत समय तक अनेक देशों में विहार करते हुए धर्मोपदेश द्वारा अनेक जीवों का कल्याण करते रहे। जब उनकी आयु एक माह शेष रह गई, तब उन्होंने सम्मेद शिखर पर जाकर एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर लिया और योग निरोध करके चंत्र कृष्णा अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पूर्व भाग में अघातिया कर्मों का नाश करके निर्वाण प्राप्त किया। उसी समय इन्द्रों ने पाकर भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजा की और स्तुति की।
यक्ष-यक्षिणी-भगवान अरनाथ का सेवक महेन्द्र यक्ष और सेविका विजया यक्षी थी।
सुभौम चक्रवर्ती
भरत क्षेत्र में भूपाल नाम का एक राजा था। एक बार शत्रुओं ने राजा भूपाल के राज्य पर आक्रमण कर दिया। भयानक युद्ध हुआ। युद्ध में भूपाल हार गया। अपनी पराजय से वह इतना खिन्न हुआ कि उसने संसार
से विरक्त होकर सम्भूत नामक मुनिराज के समीप मुनि-दीक्षा ले ली और घोर तप करने पूर्व भव लगा । किन्तु उसके मन से पराजय की शल्य निकल नहीं सकी और उसने कषायवश यह
निदान किया कि अगर मेरे तप का कुछ फल हो तो मैं आगामी भव में चत्र पर्ती बनं । मिथ्यात्ववश उसने ऐसा निन्ध विचार किया । वह तप करता रहा किन्तु उसका यह तप मिथ्या तप था। आय के मन्त में वह समाधिनरण करके मार्ग में यह रिपारी देव बना । वह सोलह सागर तक स्वर्ग के सुखों का सानन्द भोग करता रहा।
परशुराम का जन्म--कोशल देश की अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी राजा सहस्रबाहु राज्य करता था। उसकी महारानी का नाम चित्रमती था । चित्रमती कान्यकुब्ज नरेश पारत की पुत्री थी। रानी के एक पत्र हुआ, जिसका नाम कृलवीर रखखा गया।
राजा सहस्रबाह के काका शतबिन्दु की स्त्री का नाम श्रीमती था। श्रीमती राजा पारत की बहन थी। उनके जमदग्नि नामक एक पुत्र था। पत्र उत्पन्न होने के कुछ समय बाद ही श्रीमती का देहान्त हो गया। जमदग्नि जब बड़ा हुआ तो उसे मौ का अभाव खटकने लगा। वह बहुत दुखी रहने लगा। इसलिये विरक्त होकर वह तापस बन गया और तप करने लगा। उसके सिर पर जटाओं का गुल्म बन गया और मुख दाढ़ी मूंछ से भर गया ।
दो देव, जिनमें एक सम्यग्दृष्टि था और दूसरा मिथ्यादृष्टि, तापस जनों की परीक्षा लेने के लिये चिड़ाचिडिया का रूप बना कर पाये। जमदग्नि ऋषि समाधि में लीन थे 1 अवसर देखकर चिड़ा-चिड़िया ने ऋषि की दाढ़ी में ही बसेरा कर लिया। कुछ समय बाद चिड़ा बना हुआ सम्यग्दृष्टि देव चिड़िया से बोला-'प्रिये ! मैं दूसरे वन में जाता हूँ। जब तक मैं वापिस न आऊं, तब तक तुम यहीं पर रहना।' चिड़िया बोली-मुझे तेरा विश्वास नहीं है । यदि तुझे जाना है तो सौगन्ध देखा।' चिड़ा बोला-'अच्छी बात है । लेकिन क्या सौगन्ध दूं।' चिड़िया बोली-'तू यह सौगन्ध दे कि यदि मैं न पाऊँ तो इस तापस की गति को प्राप्त होऊँ।'
ऋषि इस वार्तालाप को सुन कर प्रत्यन्त क्रुद्ध हो गये। उन्होंने चिड़ा-चिड़िया को हाथों में पकड़ लिया और बोले-'धोर तप के फलस्वरूप मुझे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होने वाली है, तुमने उस लोक का तिरस्कार क्यों किया?' चिड़ा बोला-'हम क्षद प्राणी हैं, आप हम पर क्रोध न करें। किन्तु आपने क्या कभी यह विचार भी किया है कि इतनी घोर तपस्या के पश्चात् भी आपको अच्छी गति मिलने वाली नहीं है। 'प्रपुत्रस्य गतिनास्ति यह ऋषि-वाक्य है अर्थात् पुत्रहीन को सद्गति नहीं मिलती। आप तो जन्म से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर रहे हैं। आपके कोई सन्तान तो होगी नहीं, फिर आप सदगति की आशा कैसे कर रहे हैं ?