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भगवान अरनाथ
भगवान कुम्कुनाथ के मोक्ष जाने के बाद जब एक हजार करोड़ वर्ष कम पत्य का चतुर्थ भाग बीत गया, चौरासी हजार तब धरनाथ भगवान का जन्म हुआ था। उनकी आयु भी इसी काल में सम्मिलित थी। उनकी मायु चौरासी वर्ष की थी तीस धनुष ऊंचा उनका शरीर था कामदेव के समान उनका रूप था। ऐसा लगता था, मानो सौन्दर्य की समग्र संचित निधि से ही उनके शरीर की रचना हुई हो ।
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प्रभु 'धीरे-धीरे यौवन की ओर बढ़ रहे थे। जब उनकी कुमार अवस्था के इक्कीस हजार वर्ष बीत गये, तब पिता ने उन्हें राज्य सौंप दिया। उनका विवाह अनेक सुलक्षणा सुन्दर कन्याओं के साथ कर दिया। वे इक्कीस हजार वर्ष तक मण्डलेश्वर राजा के रूप में शासन करते रहे। तब उन्हें नौ निधियाँ और चौदह रत्न मिले। उन्होंने सम्पूर्ण भरत क्षेत्र को जीत कर वर्ती पद प्राप्त किया। उन्हें चक्रवर्ती पद
दीक्षा कल्याणक
के योग्य सम्पूर्ण वैभव प्राप्त था। इस प्रकार भोग भोगते हुए जब आयु का तीसरा भाग बाकी रह गया अर्थात् जब मट्ठाईस हजार वर्ष की बायु वाकी थी, तब उन्होंने एक दिन देखा-शरदऋतु के बादल आकाश में इधर-उधर तैरते डोल रहे हैं । वे प्रकृति के इस सलौने रूप को निहार रहे थे कि देखते-देखते बादलों का नाम तक न रहा, वे अकस्मात् ही श्रदृश्य हो गये। इस दृश्य का भगवान के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और इस दृश्य से उन्हें जीवन की वास्तविकता का अन्तर्योध हुआ। उन्होंने तभी निश्चय कर लिया कि अब इस जीवन का एक भी मूल्य क्षण भोगों में व्यय नहीं करना है, अभी तो आत्म-कल्याण करना है और जीवन क्षण पल बनकर छीजता जा रहा है। तभी लोकान्तिक देवों ने ग्राकर उनके सद्विचारों का समर्थन किया और अगत्कल्याण के लिए सीधेप्रवर्तन का अनुरोध करके वे अपने स्वर्ग को लौट गये भगवान ने फिर जरा भी विलम्ब नहीं लगाया। उन्होंने अपने पुत्र अरविन्द कुमार को राज्य सौप दिया और देवों द्वारा उठायो हुई वैजयन्ती नामक पालकी में बैठकर सहेतुक यन में पहुंचे। वहाँ बेला का नियम परिशु के दिन रेल्ती क्षत्र में सन्ध्या के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ने ली दीक्षा धारण करते ही वे चार ज्ञान के पारी हो गये। देवों ने भगवान का दीक्षा कल्याणक उत्सव मनाया ।
केवलज्ञान कल्याणक
भगवान पारणा के लिए चत्रपुर नगर में पधारे। वहाँ राजा अपराजित ने भगवान को प्रामुक बाहार देकर अक्षय पुण्य संचय किया। देवों ने पंचाश्चर्य किये। बाहार लेकर भगवान बिहार कर गये और तपस्या करने लगे । भगवान ताना प्रकार के कठिन तप करते हुए विहार करते हुए दीक्षा वन में पधारे और एक श्राम्रवृक्ष के नीचे वेला का नियम लेकर पद्मासन मुद्रा में ध्यानारूढ़ हो गये। वे शुक्लध्यान द्वारा घातिया कर्मों का उन्मूलन करने लगे । वे श्रप्रमत्त दशा में माटवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में पहुँचकर क्षपक श्रेणी में धारोहण करके बारहवें गुणस्थान में पहुॅचे। बारहवें गुणस्थान के प्रारम्भिक भाग में उन्होंने मोहनीय कर्म का नाश कर दिया और उसके उपान्त्य समय में उन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का नाश किया। इस प्रकार उन्हें कार्तिक शुक्ला द्वादशी के दिन रेवती नक्षत्र में सायंकाल के समय अनन्तशान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख सौर अनन्त वीर्य नामक चार क्षायिक गुण प्रगट हुए। वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन गये । तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से उन्हें प्रष्ट प्रातिहार्य की प्राप्ति हुई । देवों ने आकर भगवान के केवलज्ञान कल्याणक की पूजा की और देवों द्वारा निर्मित समवसरण सभा में देवों, मानवों और तियंचों को उन्होंने अपना प्रथम उपदेश दिया, जिसे सुनकर अनेक मनुष्यों ने सकल संयम धारण किया, अनेक मनुष्यों मोर तियंचों ने भावक के व्रत ग्रहण किये, अनेक जीवों को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई।
भगवान का परिकर - भगवान ने चतुविध संघ की पुनः स्थापना की उनके संध में कुम्भा बादि तीस गणधर थे, ६१० ग्यारह अग चौदह पूर्व के वेत्ता थे, ३५६३५ सूक्ष्म बुद्धि के धारक शिक्षक मे, २००० अवधिज्ञानी थे, २००० केवलज्ञानी थे, ४३०० विक्रिया ऋद्विधारी थे, २०५५ मन:पर्ययज्ञानी थे, १६०० श्रेष्ठ वादी थे। इस प्रकार कुल मुनियों की संख्या ५०००० थी यक्षिला भादि ६०००० अजिकायें थीं। १६०००० धावक मीर ३००००० श्राविकार्य थीं असंख्यात देव और संख्यात तियंच उनके भक्त थे।