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सुभीम चक्रवर्ती
चिड़ा के बचन सुनकर जमदग्नि ऋषि सोच में पड़ गये-'निश्चय ही ये पक्षी ठीक कहने हैं। ये तो मेरे उपकारी हैं। मझे विवाह करके सन्तानोत्पत्ति करनी चाहिये ।' यह विचार कर उन्होंने पक्षियों को मुक्त कर दिया और वे कान्यकुब्ज नरेश पारत के यहां पहुँचे । पारत ने अपने भानजे के लक्षण देखे तो उसे सन्देह हा । उसने ऋषि से पाने का प्रयोजन पुछा । ऋषि ने स्पष्ट बता दिया कि मैं विवाह करना चाहता हूँ। राजा पारत बोले-मेरे सौ पुत्रियाँ हैं। उनमें से तुम्हें जो स्वीकार करे, उसका विवाह तुम्हारे साथ कर दूंगा।' जमदग्नि कन्याओं के पास गया । किन्तु उसकी तपोदग्ध भयंकर प्राकृति को देख कर कन्याय या तो भाग गई या फिर भय के मारे संज्ञाहीन हो गई। केवल एक छोटी कन्या कूतहलवश खड़ी देखती रही । जमदग्नि राजा का आज्ञा मे उसे लेकर चल दिये और उसके साथ विवाह करके रहने लगे। उस कन्या का नाम रेणुका था।
यथासमय उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए–इन्द्र और श्वेतराम । दोनों ही सुलक्षण, रूपवान और वीर थे।
एक दिन जमदग्नि के आश्रम में अरिजय नामक मुनि आये । वे रेणुका के बड़े भाई थे। रेणका ने मुनि की यन्दना की। मुनि ने उसे उपदेश दिया, जिससे रेणुका ने सम्यग्दर्शन धारण किया। मुनि ने चलते समय कामधेनू नामक विद्या और मंत्रपूत फरशा दिया और वहां से चले गये।
कछ दिन पश्चात अपने पुत्र कृतबीर के साथ राजा सहस्रबाह जमदग्नि के आश्रम में पाया । जमदग्नि ने अपने चचेरे भाई से भोजन का आग्रह किया, जिसे उसने स्वीकार कर लिया। जमदग्नि ने अभ्यागतों को सस्वाद मोजन कराया। भोजन करके कृतवोर ने अपनी मौसी रेणुका से पूछा-'ऐसा सुस्वादु षट्रस व्यंजन तो राजामों को भी दुर्लभ है। फिर वन में रहने वाले माप लोगों ने ऐसी दुर्लभ सामग्री कहाँ से प्राप्त की।' रेणुका ने सरलतावश कामधेनु विद्या की प्राप्ति का सव बात उसे बता दो। सुनकर कृतवीर बोला-'संसार में श्रेष्ठ वस्तु राजा की होती है।' यह कहकर वह जबर्दस्ती कामधेनु ले कर जाने लगा। तब जमदग्नि ऋषि उसे रोकने के लिये रास्ता रोक कर खडे हो गये । कृसवीर ने क्रोध में भरकर जमदग्नि को मार दिया और अपने नगर की ओर चला गया।
पति की मृत्यु से रेणुका शोकाकुल होकर विलाप करने लगी।
परशुराम द्वारा सहस्रबाहु का संहार-जब दोनों पुत्र धन से कन्दमूल फस लेकर लौटे तो माता का कदन सुनकर वे बड़े दुःखित हुए । पूछने पर उन्हें सारा वृत्तान्त ज्ञात हुमा । सब बात सुनकर उन्हें भयंकर कोध माया। माता को सान्त्वना देकर फरशा लेकर दोनों भाई मुनिकुमारों को साथ लेकर वहां से चल दिये और वे अयोध्या नगरी में पहुंचे। वहां उनका राजा के साथ भयानक युद्ध हुआ । युद्ध में इन्द्र राम ने फरशे के प्रहार से सहस्रबाहु का बध कर दिया तथा वह सहस्रबाह की शेष सन्तानों को मारने में जूट गया।
चित्रमती महारानी के बड़े भाई शाण्डिल्य तापस को पता चल गया कि इन्द्र राम, जिन्हें परशु के कारण लोग परशुराम कहने लगे थे, सहस्रबाहु के वंश का उच्छेद करने के लिये दृढप्रतिज्ञ है। शाण्डिल्य राजप्रासाद में पहुंचा और रानी चित्रमती को लेकर गुप्तमार्ग से निकल गया और वन में सुबन्धु मुनिराज के समीप छोड़ पाया।
रानी चित्रमती उस समय गर्भवती थी। गर्भ-काल पूरा होने पर वन में उसने तेज से देदीप्यमान पुत्र को जन्म दिया । वह भूमि का प्राश्लेषण करता हुमा उत्पन्न हुया था। बालक महान पुण्यवान था। वन देवता उसकी
रक्षा करते और लालन-पालन करते थे। एक दिन रानी ने मुनिराज से बालक का भविष्य सुभौम का जन्म पूछा । अवधिज्ञानी मुनि बोले-'पुत्री ! तेरा यह पूत्र समस्त भरत क्षेत्र का अधिपति चक्र
वर्ती बनेगा । चक्रवर्ती होने की पहचान यह है कि यह सोलहवें वर्ष में जब कढ़ाई में उबलते हर पी में सिकते हए गरम पनों को निकाल कर खा लेगा. तब समझना कि उसके चक्रवर्ती बनने का काल है । मुनि महाराज की यह भविष्यवाणी सुनकर माता को बड़ी सान्त्वना और शान्ति प्राप्त हुई।
सभौमको चक्रवर्ती-पद की प्राप्ति--कुछ काल पश्चात शाण्डिल्य तापस पाकर अपनी बहन चित्रमती और बालक को अपने घर ले गया। चूंकि बालक पृथ्वी का आलिंगन करता हुया उत्पन्न हुआ था, इसलिये उसका नाम सुभौम रक्खा गया। बालक धीरे-धीरे बढ़ने लगा। जब वह विद्या ग्रहण करने योग्य हुमा तो उसे शास्त्रों और पास्त्रों की शिक्षा देने की व्यवस्था कर दी। इस प्रकार बालक ने क्रमशः सोलहवें वर्ष में पदार्पण किया।