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एकोनविंशति परिच्छेद
भगवान अरनाथ
पूर्व भव
जम्बूद्वीप में सीतानदी के उत्तर नट पर कच्छ नामक देश था। उसमें क्षेमपुर नगर था, जिसका अधिपति धनपति नामक राजा था। बह प्रजा का रक्षक था, प्रजा उसे हृदय से प्रेम करती थी। उसके राज्य में राजा और
प्रजा सब लोग अपनी-अपनी वृत्ति के अनुसार विदर्ग का सेवन करते थे, अत: धर्म की परम्परा निर्बाध रूप से चल रही थी। एक दिन राजा भगवान अहंन्नन्दन तीर्थकर के दर्शनों के लिए
गया और उनका उपदेश सुनकर उसके मन में आत्म-कल्याण की भावना जागृत हुई। उसने अपना राज्य अपने पुत्र को दे दिया और भगवान के निकट जनेश्वरी दीक्षा ले ली। वह भगवान के चरणों में रहकर सप करने लगा तथा शीघ्र ही ग्यारह अग का पारगामी हो गया। वह निरन्तर सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन परता था। फलत: उसे तीथंकर नामक सातिशय पुण्य प्रकृति का बन्ध हो गया। अन्त में प्रायोपगमन मरण करके जयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में सोमवंश के भषण काश्यप गोत्री महाराज सुदर्शन राज्य करते थे। मनकी महारानी मित्रसेना थी। जब उस अहमिन्द्र की आयु में छह माह शेष थे, तभी से महाराज के महलों में रत्नर्ण होने लगी। जब अहमिन्द्र की आयु समाप्त होने वाली थी, तभी महारानी ने फाल्गुन शुक्ला तृतीया के दिन
रेवती नक्षत्र में रात्रि के अन्तिम प्रहर में तीर्थकर जन्म के सूचक सोलह स्वप्न देखे तथा गवितरण स्वप्नों के अन्त में उसने मुख में एक विशालकाय हाथी प्रवेश करते हुए देखा। तभी अहमिन्द्र
का जीव स्वर्ग से चयकर महारानी के गर्भ में आया। प्रातःकाल होने पर महारानी स्नानादि से निवृत्त होकर श्रृंगार करके महाराज के निकट पहुंची और महाराज के वाम पार्श्व में प्रासन ग्रहण करके उन्होंने राप्त में देखे हुए अपने स्वप्नों की चर्चा उनसे की तथा उनसे स्वप्नों का फल पूछा। महाराज ने भवधिज्ञान से विचार कर कहा-देवी! तुम्हारे गर्भ में जगत का कल्याण करने वाले तीर्थकर भगवान अवतरित हुए हैं। फल सुनकर माता को अपार हर्ष हुा । तभी देवों ने आकर भगवान के गर्भ कल्याणक का उत्सव किया।
नौ माह व्यतीत होने पर महारानी मित्रसेना ने मंगसिर शुक्ला चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में एक हजार माठ लक्षणों से सुशोभित और तोन ज्ञान का धारी पुत्र उत्पन्न किया। उनके जन्म से तीनों लोकों के जीवों को
___ शान्ति का अनुभव हुआ था। उस असाधारण पुण्य के स्वामी पुत्र के जन्म लेते ही चारों प्रकार जन्म कल्याणक के देव पोर इन्द्र अपनी-अपनी देवियों और इन्द्राणियों के साथ तीर्थकर बालक का जन्म
कल्याणक महोत्सव मनाने वहाँ आये। वे पुत्र को सुमेरु पर्वत पर ले गये और वहाँ क्षीरसागर के जल से परिपूर्ण स्वर्ण कलशों से उन्होंने बालक का अभिषेक करके महान उत्सव किया। उत्सव मनाकर वे लोग पुनः हस्तिनापुर आये । इद्राणी ने बालक को माता को सोंपा। इन्द्र ने माता-पिता से देवों द्वारा मनाये गये उत्सव के समाचार सुनाये । सुनकर माता-पिता अत्यन्त हर्षित हुए। फिर उन्होंने पुत्र-जन्म का उत्सव मनाया । सौधर्मेन्द्र मे बालक का नामकरण किया और उसका नाम अरनाथ रक्खा। बालक के एक हजार आठ लक्षणों में से पैर में बने हुए मीन चिन्ह पर अभिषेक के समय इन्द्र की दृष्टि सबसे पहले पड़ी थी। इसलिए अरनाथ का लाक्षणिक चिन्ह “मीन' ही माना गया। भगवान के शरीर का वर्ण सूवर्ण के समान था।
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