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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास के साथ उनका विवाह कर दिया। राज्य करते हुए इतना ही काल व्यतीत हो गया, तब उनकी आयुधशाला में चक्र आदि शस्त्र तथा चक्रवर्ती पद के योग्य अन्य रत्न और सामग्री प्राप्त हई । उन्होंने विशाल सेना लेकर भरत क्षेत्र के छह खण्डों पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। सारे भरत क्षेत्र के बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनके प्राज्ञानुवर्ती थे। उन्हें समस्त सासारिक भोग उपलब्ध थे। भोग भोगते हए और साम्राज्य लक्ष्मी का भोग करते हुए उन्हें तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष बीत गये। वे तीर्थकर थे, चक्रवती थे और कामदेव थे। उनका रूप, वैभव, और पुण्य असाधारण था। कोई ऐसा सांसारिक सुख नहीं था, जो उन्हें भप्राप्त था।
एक दिन वे वन बिहार के लिये गये। मंत्री उनके साथ थे। उन्होंने देखा-एक निर्यस्थ दिगम्बर मनि आतापन योग में स्थित हैं। उन्होंने उनकी ओर संकेत करके मंत्री से उनको प्रशंसा की--'देखो मंत्रोवर ! ये मुनि कितना घोर तप कर रहे हैं।' मंत्री ने नतमस्तक होकर मुनिराज की वन्दना की और प्रभु से पूछा-'देव ! इतना ठिन तप करके इनको क्या फल मिलेगा?'प्रभु बोले-ये मुनि कर्मों को नष्ट करके इसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे। जा परिग्रह और आरम्भ का त्याग करते हैं, वे ही संसार के परिभ्रमण से मुक्ति प्राप्त करते हैं । संसार-भ्रमण का कारण यह भारम्भ-परिग्रह ही है।'
वस्तुत: भगवान ने मंत्री को जो कुछ कहा था, वह उपदेश मात्र नहीं था, अपितु भगवान के सतत चिन्तन की उम दिशा का सकेत था, जो सांसारिक भोग भोगते हए भी वे सांसारिक भोगो की व्यर्थता, संसार के स्वरूप और आत्मा के त्रिकाली स्वभाव के सम्बन्ध में निरन्तर किया करते थे। वास्तव में बे भोगों में कभी लिप्त नहीं हए । बे भोगों का नहीं, भोग्य कमों का भोग कर रहे थे और चिन्तन द्वारा भोग-काल को अल्प कर रहे थे। एक दिन इस चिन्तन के क्रम में उन्हें अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो आया। इससे उन्हें आत्मज्ञान हो गया। चिन्तन के फलस्वरूप उन्हें भोगों से प्ररुचि हो गई और उन्होंने दीक्षा लेने का निश्चय किया । लौकान्तिक देवों ने प्राकर भगवान की वन्दना की और निवेदन किया-'धन्य है प्रभ प्रापके निश्चय को। अब आप धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन कीजिये। संसार के दुखी प्राणी आपकी मोर आशा भरी निगाहों से निहार रहे हैं।
भगवान ने अपने पुत्र को राज्य का भार सौंप दिया। देवतानों ने शिविका लाकर उपस्थित की और प्रभु उस विजया पालकी में बैठकर नगर के बाहर सहेतुक वन में पहुंचे और वहाँ अपने जन्म-दिन-वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन कृत्तिका नक्षत्र में सायंकाल के समय बेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ उन्होंने सम्पर्ण पापों का परित्याग करके दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी समय उन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। देवों ने भगवान का दीक्षा कल्याणक उत्सव मनाया।
पूसरे दिन विहार कर प्रभु हस्तिनापुर नगर में पधारे। वहां राजा धर्ममित्र ने प्राहार देकर प्रभु का पारणा कराया। देवों ने पंचाश्चर्य किये।
विविध प्रकार के घोर तप करते हुए भगवान ने छदमस्थ अवस्था के सोलह वर्ष बिताये। फिर विहार करते हुए वे दीक्षा-वन में पधारे। वहां तिलक वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर विराजमान हो गये। वहीं चैत्र
शुक्ला तृतीया के दिन सायंकाल के समय कृत्तिका नक्षत्र में मोह का नाश करके केवलज्ञान केवलज्ञान प्राप्त किया। तभी हर्ष और भाव-भक्ति से युक्त देव और इन्द्र आये। कुबेर ने समवसरण
की रचना की। उसमें गन्धकटी में अशोक वक्ष के नीचे सिंहासन पर विराजमान होकर भगवान ने धर्म का स्वरूप देवों, मनुष्यों और तिर्यचों को सूनाकर धर्म-तीर्थ की स्थापना को और तीर्थकर पद की सार्थकता की।
भगवाम का संघ-भगवान ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। उस संघ में स्वयम्भू प्रादि पैतीस गणधर थे।७०० मुनि पूर्व के शाता थे। ४३१५० शिक्षक, २५०० अवधिज्ञानपारी, ३२०० केवलज्ञानी, ५१०० दिक्रिया ऋद्धि के धारक, ३३०० मनःपर्ययज्ञानी और २०५० सर्वश्रेष्ठ वादो थे। इस प्रकार ६०००० मुनि उनके संप में थे।