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अष्टादश परिच्छेद
भगवान कुन्थुनाथ जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिणी तट पर वत्स नामक देश था। उसको सुसीमा नगरी में राजा सिहरथ राज्य करता था। उसने अपने पराक्रम से समस्त शत्रुनों पर विजय प्राप्त कर ली थी और
निष्कण्टक राज्य कर रहा था । एक दिन उसने उल्कापात होते हुए देखा । उसे देखकर उसके - पूर्व भव मन में संसार के भोगों की क्षणभंगुरता की प्रोर दृष्टि गई और उसने भोगों को निस्सार
समझकर उन्हें छोड़ने का संकल्प कर लिया। वह राजपाट, परिवार का त्यागकर मुनि यतिउपभ के समीप गया और उन्हें नमस्कार कर सम्पूर्ण प्रारम्भ-परिग्रह का त्याग कर दिया। उनके साथ अनेक राजाओं ने भी मुनि-दीक्षा ले ली। मुनि सिंहरथ गुरु के समीप रहकर घोर तपस्या करने लगे। उन्होंने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया और सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करने लगे । फलतः उन्हें तीर्थङ्कर नामकर्म की पुण्य प्रकृति का बन्ध हो गया । प्रायु के अन्त में समाधिमरण कर सर्वार्थ सिद्धि अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुए।
हस्तिनापुर नगर के कौरवबंशी काश्यपगोत्री श्री महाराज सरसेन थे। उनकी महारानी का नाम श्रीकांता पा। महारानी ने श्रावण कृष्णा दसमो के दिन कृतिका नक्षत्र में रात्रि के अन्तिम प्रहर में जब सर्वार्थसिद्धि के उस
ग्रहमिन्द्र की आयु समाप्त होने वाली थी, सोलह शुभ स्वप्न देखे और बाद में मुख में प्रवेश गर्भ कल्याणक करता हुअा हाथी देखा। तभी अहमिन्द्र का वह जीव महारानी के गर्भ में अवतीर्ण हुमा।
प्रातःकाल बन्दीजनों के मंगलगान से महारानी को नींद खुलो । स्वप्नों के प्रभाव से महारानी के मन में बड़ा उल्लास था । उन्होंने नित्य कार्य कर स्नान किया, मांगलिक वस्त्राभूषण पहने और दासियों से परिवेष्टित होकर राजसभा में पधारी । उन्होंने महाराज की यथायोग्य विनय की। महाराज ने उन्हें बड़े आदरसहित वाम पाश्व में स्थान दिया। महारानी ने महाराज से अपने स्वप्नों की चर्चा करके उनके फल पूछे।महाराज ने अवधिज्ञान से जानकर उनका फल बताया। फल सुनकर महारानो का मन हर्ष से भर गया । तभी देवों ने भाकर महाराज सूरसेन और महारानी श्रीकांता का गर्भ कल्याणक सम्बन्धी अभिषेक किया और पूजा की।
नौ मास व्यतीत होने पर वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन आग्नेय योग में महारानी ने पुत्र प्रसन किया। उस समय इन्द्र और देव पाये और बालक को लेकर सुमेरु पर्वत पर ले गये। वहाँ क्षीरसागर के जल से उस दिव्य
बालक का अभिषेक किया, उसका दिव्य वस्त्रालंकारों से श्रृंगार किया। इन्द्र ने बालक का जन्म कल्याणक नाम कुन्थुनाथ रक्खा | उसके चरण में बकरे का चिन्ह था, जिस पर इन्द्र को सवप्रथम दृष्टि
पड़ी। इसलिये उस बालक का सांकेतिक चिन्ह बकरा माना गया। फिर इन्द्र और देव बालक को वापिस लाये और उसे माता-पिता को सोंपकर आनन्दोत्सव किया। पिता ने भी नगरी में धूमधाम के साथ बालक का जन्मोत्सव मनाया। देव लोग उत्सव मनाकर अपने अपने स्थान पर चले गये।
शान्तिनाथ तीर्थङ्कर के मोक्ष जाने के बाद जब आधा पल्य बीत गया, तब कून्यूनाथ भगवान का जन्म हबा था। उनकी आयु भी इसी काल में सम्मिलित थी। उनकी आयु पचान हजार वर्ष थी। उनका शरीर पतीत
धनुष उन्नत था। सुवर्ण के समान उनके शरीर को कांति थो। जब तेईस हजार सात सो दीक्षा कल्याणक पचास वर्ष कुमारकाल के व्यतीत हो गए, तब पिता ने उनका राज्याभिषेक और योग्य कन्याबों
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