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कासाची इतिहास
चल नामक देव सहन नहीं कर सका और वह वज्रायुध की परीक्षा करने चल दिया। श्राकर उसने वज्रायुध से नाना भांति के प्रश्न किये, किन्तु वज्रायुध ने श्रात्म-श्रद्धा के साथ देव को उत्तर दिये। उससे वह न केवल निरुत्तर ही हो गया, बल्कि उसे भी सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया। उसने अपना वास्तविक रूप प्रगट कर राजा की पूजा की और अपने श्राने का उद्देश्य प्रगट कर उनकी बहुत प्रशंसा की।
वायु के पिता क्षेमंकर तीर्थंकर थे। उन्हें राज्य करते हुए बहुत समय बीत गया। तब वे बच्चायुध का राज्याभिषेक करके दीक्षित हो गये और तपस्या करते हुये उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया । इन्द्र और देव उनके ज्ञान कल्याणक के उत्सव में आये और उनकी पूजा की। वे चिरकाल तक बिहार करके भव्य जीवों का कल्याण करते रहे । एक बार बच्चा अपनी रानियों के साथ वन - बिहार के लिये गये। वहां एक तालाब में वे रानियों के साथ जल-क्रीड़ा कर रहे थे, तभी किसी दुष्ट विद्याधर ने एक शिला से सरोवर को ढक दिया और वज्रायुष को नागपाश से बांध लिया । किन्तु वज्रायुध इससे जरा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने हाथ की हथेली से शिला पर प्रहार किया, जिससे उसके शत शत खण्ड हो गए। वे फिर रानियों के साथ अपने नगर वापिस आ गये ।
इसके कुछ काल बाद ही नौ निधियों और चौदह रत्न प्रगट हुए। उन्होंने दिग्विजय के लिये अभियान किया और कुछ ही समय में षट् खण्ड पृथ्वी को जीतकर वे वत्रवर्ती बन गए। वे चिरकाल तक भोग भोगते रहे । एक दिन उनके पौत्र मुनिराज कनकशान्ति को केवलज्ञान हो गया। उन्होंने तभी अपने पुत्र सहस्रायुष का राज्याभिषेक करके क्षेमंकर भगवान के पास जाकर दोक्षा लेली 1 दीक्षा लेकर वे सिद्धिगिरि पर्वत पर एक वर्ष का प्रतिमायोग का नियम लेकर ध्यानलीन हो गये। धीरे-धीरे उनके चरणों के सहारे दीमकों ने बमीठे बना लिये और उनमें लताएं उग भाई जो मुनिराज के शरीर पर चढ़ गई। दो असुरों ने उनके ऊपर उपद्रव करने का प्रयत्न किया किन्तु रम्भा और तिलोत्तमा नामक दो देवियों ने उन्हें भगा दिया। फिर उन्होंने मुनिराज की पूजा की ।
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कुछ समय पश्चात् सहस्रायुध ने भी दीक्षा लेली भौर प्रतिमायोग का काल पूर्ण होने पर वे भी मुनिराज वायुध के पास आ गये। दोनों ने वैभार पर्वत पर जाकर तपस्या की और सन्यासमरण कर वे दोनों ऊष्यं प्रवेयक के सौमनस विमान में महमिद्र हुए.
पूर्व विदेह क्षत्र में पुष्कलावती देश था । उसमें पुण्डरीकिणी नगरी थी। उस नगरी के शासक धनरथ थे । asia का जीव वेयक में आयु पूर्ण होने पर महाराज धनरथ की बड़ी रानी मनोहरा से मेघरथ नामक पुत्र पैदा हुग्रा और सहस्रायुध का जीव महाराज की दूसरी रानी मनोहरा से दृढ़रथ नामक पुत्र हुआ। दोनों पुत्रों की ज्यों ज्यों श्रायु बढ़ती गई, त्यों त्यों उनके गुणों में भी वृद्धि होती गई। जब वे पूर्ण युवा हो गये, तब पिता ने दोनों के विवाह कर दिये । मेघरथ को जन्म से ही अवधिज्ञान था और पिता तीर्थंकर थे। एक दिन महाराज धनरथ को संसार के सुखों से विरक्ति हो गई। तभी लोकान्तिक देवों ने श्राकर स्वर्गीय पुष्पों से उनकी पूजा की और उनके विचारों की सराहना करके देव- लोक को चले गये। तब महाराज धनरथ ने मेघरथ का राज्याभिषेक करके स्वय संयम धारण कर लिया । तपस्या करते हुए उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। देवों ने आकर बड़े वैभव के साथ उनकी पूजा की। भगवान धनरथ विभिन्न देशों में विहार करते हुए उपदेश देने लगे ।
एक दिन मेघरय अपनी रानियों के साथ देवरमण उद्यान में बिहार के लिये गये। वे वहाँ चन्द्रकांत मणि की शिला पर बैठे विश्राम कर रहे थे। तभी उनके ऊपर से एक विद्याघर विमान में जा रहा था। किन्तु विमान रुक गया । इससे विद्याधर बड़ा कुपित हुआ। यह नीचे उतर कर आया। वह कोष के मारे उस शिलातल को उठाने के लिये प्रयत्न करने लगा। मेघरथ ने यह देखकर अपने पैर के अंगूठे से उस शिलर को दबा दिया। इससे विद्याधर बुरी तरह उसके नीचे दब गया और करुण स्वर में चिल्लाने लगा। तब उसकी स्त्री भाकर दीनतापूर्वक पति के प्राणों को भिक्षा मांगने लगी । मेघरथ उसकी विनय से द्रवित हो गये और अपना पैर उठा लिया। तब इस विद्याधर राजा सिहरथ ने मेघरथ की पूजा की ।
एक दिन महाराज मेधरय उपवास का नियम लेकर भ्रष्टान्हिक पूजा के पश्चात् उपदेश दे रहे थे। तभी