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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
भिषेक किया। फिर वे देवनिर्मित सर्वार्थसिद्धि पालकी में बैठकर नगर के बाहर सहस्राम्र वन में पहुँचे। वहाँ शिलातल पर उत्तर की ओर मुख करके पर्यकासन से बैठ गये । उसी समय ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन शाम के समय भरणी नक्षत्र में बेला का नियम लेकर सिद्ध भगवान को नमस्कार कर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग किया, पंचमुष्टि लोंच किया और निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्रा धारण कर सामायिक चारित्र को विशुद्धता और मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त किया । इन्द्र ने उनके केशों को एक रत्नमंजूषा में रख कर क्षीरसागर में प्रवाहित कर दिया। उनके साथ चक्रायुध प्रादि एक हजार राजाओं ने भी सकल संयम धारण कर लिया । इन्द्र और देव ऐसे संयम की भावना करते दीक्षा महोत्सव मनाकर अपने-अपने स्थान को चले गये ।
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पारणा के लिये भगवान मन्दिरपुर नगर में पहुंचे। वहाँ सुमित्र राजा ने भगवान को प्रासूक आहार दिया । देवों ने इस उपलक्ष्य में पंचाश्चर्य किये।
केवलज्ञान कल्याणक छद्मस्थ अवस्था के सोलह वर्ष तक भगवान विभिन्न स्थानों पर रहकर घोर तप करते रहे और निरन्तर कर्मों का क्षय करते गये। फिर भगवान चक्रायुध आदि मुनियों के साथ सहस्राम्र वन में पधारे और नन्द्यावर्त वृक्ष के नीचे वेला के उपवास का नियम लेकर ध्यानमग्न हो गये । उनका मुख पूर्व की ओर था। भगवान को पीष शुक्ला दशमी को भरणी नक्षत्र में सायंकाल के समय ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म नष्ट होने पर केवलज्ञान प्रगट हुआ । देव और इन्द्रों ने आकर भगवान का ज्ञान कल्याणक मनाया और समवसरण की रचना की। भगवान ने उसी दिन दिव्य ध्वनि द्वारा धर्मचक्र प्रवर्तन किया ।
भगवान का संध - भगवान के संघ में चक्रायुध आदि छत्तीस गणधर थे । ८०० पूर्वघर, ४१५०० शिक्षक, ३००० अवधिज्ञानी, ४००० केवलज्ञानी, ६००० विक्रिया ऋद्धिघारी, ४००० मन:पर्ययज्ञानी, २४०० वादी थे। इस प्रकार कुल मुनियों की संख्या ६२००० थी । हरिषेणा आदि ६०३०० प्रायिका थीं। सुरकीर्ति आदि २००००० श्रावक और अद्दासी आदि ४००००० श्राविकार्य थीं।
निर्वाण कल्याणक - भगवान बहुत समय तक विभिन्न देशों में विहार करके धर्म का प्रकाश संसार को देते रहे । जब एक माह की आयु शेष रह गई, तब वे सम्मेदशिखर पर आये और बिहार बन्द कर वहाँ योगनिरोध करके विराजमान हो गये । उन्होंने अवशिष्ट वेदनीय, धायु, नाम और गोत्र कर्मों का भी क्षय कर दिया और ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन रात्रि के पूर्व भाग में भरणी नक्षत्र में नौ हजार राजाओं के साथ निर्वाण प्राप्त किया । चार प्रकार के देव प्राये और निर्वाण कल्याणक की पूजा करके अपने-अपने स्थान को चले गये ।
जन्म-चिन्ह - भगवान का चिन्ह हरिण था ।
यक्ष-यक्षिणी - इनका गरुड़ यक्ष सौर महामानसी यक्षिणी थी ।
हस्तिनापुर - भगवान की जन्म नगरी हस्तिनापुर विख्यात जैन तीर्थ है । यहीं पर सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ, सत्रहवं कुन्थुनाथ और अठारहवें भगवान धरनाथ का जन्म हुआ था । यहीं इन तीर्थकरों के गर्भ, जन्म, दीक्षा प्रोर केवलज्ञान ये चार कल्याणक हुए। ये तीनों तीर्थंकर पांचवें, छटवें, सातवं चक्रवर्ती भी थे ।
मयोध्या की तरह हस्तिनांपुर की भी रचना देवों ने की थी । यहाँ ऋषभदेव, मल्लिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर भादि कई तीर्थंकरों का पदार्पण हुआ था । यहीं पर भगवान ऋषभदेव चे दीक्षा के बाद राजकुमार श्रेयांस से प्रथम आहार लिया था। जिस दिन भगवान ने आहार लिया था, वह पावन तिथि वैशाख शुक्ला तृतीया थी । भगवान के आहार के कारण यह तिथि भी पवित्र हो गई घोर प्रक्षय तृतीया कहलाने लगी । दराजकुमार श्रेयान्स का नाम दान - तीर्थ के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हो गया और संसार में दान देने की प्रथा का प्रारम्भ भी इसी घटना के कारण हुआ ।
सती सुलोचना श्रेयान्स के बड़े भाई राजा सोमप्रम के पुत्र मेघेश्वर जयकुमार की पत्नी थी, जिनके शीस की चमत्कारपूर्ण घटनायें प्रसिद्ध हैं। सोमप्रभ से सोमवंश था चन्द्रवंश चला। जयकुमार प्रथम चक्रवर्ती भरत का प्रधान सेनापति या ।
चौथा चक्रवर्ती सनत्कुमार यहीं हुआ था। इस प्रकार लगातार चार चक्रवर्ती मोर तीन तीर्थंकर यहां हुए
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