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भगवान शान्तिनाथ विद्यायें सिद्ध थीं और वह विजयार्थ पर्वत को दोनों श्रेणियों का एकछत्र सम्राट् था, किन्तु धर्म-कायों में कभी प्रमाद नहीं करता था। किन्तु एक दिन उसने भोगों का निदान बन्ध किया।
जब दोनों की प्रायु एक मास शेष रह गई तो अपने-अपने पुत्रों का राज्य देकर वनन्दन नामक मुनिराज के पास दीक्षा लेकर मुनि बन गगे और अन्त में समाधिमरण करके तेरहवें स्वर्ग में अमित ऋद्धिधारी देव हुए।
प्रायु पुर्ण होने पर अमिततेज का जीव पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्सकावतो देश के राजा स्तिमितसागर को रानी वसुन्धरा के गर्भ से अपराजित नामक पुत्र हमा और श्रोविजय का जोष उसो राजा को अनुमति नाम की रानी से अनन्तवीर्य नामक पुत्र हुमा। दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम था । वे दोनों ही क्रमशः बलभद्र और नारायण थे। जब वे यौवन अवस्था को प्राप्त हुए तो पिता ने उनका विवाह कर दिया और बड़े भाई को राज्य-भार सौंपकर छोटे भाई को युवराज पद दे दिया। राज्य पाते ही उनका प्रभाव और तेज बढ़ने लगा।
उनकी राज्यसभा में बर्बरी और चिलातिका नामक दो सुन्दर नतंकियां थीं। नत्यकला में उनकी प्रसिद्धि सम्पूर्ण देश में व्याप्त थी। एक दिन ये दोनों नर्तकियों का नन्य देखने में मग्न थे, तभी नारद पधारे, किन्तु उनका ध्यान नारद की ओर नहीं गया, प्रतः वे उनका उचित पादर नहीं कर सके । इतने में नारद पागबबूला हो गये मोर सभा से निकल गये। वे सीधे शिवमन्दिर नगर के राजा दमितारि के पास पहुँचे। राजा ने उठकर उनकी अभ्यर्थना की और बैठने के लिये उच्चासन दिया । इधर-उधर की बातचीत होने के अनन्तर नारद ने उन नृत्यकारिणियों का जिक्र छेड़ा और कहा-महाराज! वे तो ऐसो रत्न हैं, जो केवल प्रापकी सभा में हो शोभा पा सकती हैं। उनके कारण पापकी सभा की भी शोभा बढ़ेगी।
नारद तो चिनगारी छोड़कर चले गये। दमितारि का प्रभाव प्राधे देश पर था। वह प्रतिनारायण का ऐश्वर्य भोग रहा था। उसने दूत भेजकर दोनों भाइयों को आदेश दिया-तुम लोग अपनी नर्तकियों को दत के साथ हमारे पास भेज दो।
राजा अपराजित ने दत को सम्मानपूर्वक ठहराया और मंत्रियों से परामर्श किया । फलतः वे दोनों भाई नर्तकियों का वेष धारण करके दूत के साथ दमितारि को सभा में पहुँचे। वहां उन्होंने जो कलापूर्ण नत्य दिखाया तो दमितारि बोला-'तुम हमारी पुत्री को नृत्यकला सिखला दो।' उन्होंने यह भी स्वीकार कर लिया। वे राजपुत्री कनक श्री को नृत्यकला सिखाने लगे। वहीं कनकधी और अनन्तवीर्य का प्रेम हो गया । एक दिन दोनों भाई राजपूत्री को लेकर पाकाश-मार्ग से चल दिये । जब अन्तःपुर के कचुकी ने यह दुःसंवाद महाराज दमितारि को सुनाया तो वह अत्यन्त ऋद्ध होकर सेना लेकर युद्ध करने चल दिया। मार्ग में ही दमितारि का दोनों भाइयों के साथ भयानक युद्ध हमा । अपराजित सेना के साथ युद्ध करने लगा और अनन्तबीर्य दमितारि के साथ। मनन्तवोर्य के प्रहारों से त्रस्त होकर दमितारि ने उस पर चक्र फेंका। किन्तु चक्र प्रदक्षिणा देकर उसके कन्धे पर ठहर गया । तब अनन्तवीर्य ने उसी चक्र से दमितारि का वध कर दिया। पश्चात् सभी विद्याधरों को जीतकर अपराजित ने बलभद्र पद धारण किया और अनन्तवीय ने नारायण पद । वे दोनों आनन्दपूर्वक बहुत काल तक राज्य-सुख का भोग करते रहे ।
अनन्तवीर्य को मत्य होने पर अपराजित वहत शोक करता रहा। फिर पत्र को राज्य सौंपकर सम्पूर्ण पाभ्यन्तर-बाह्य प्रारम्भ परिग्रह का त्याग कर संयम धारण कर लिया और समाधिमरण कर अच्युत स्वर्ग का इन्द्र हमा । अनन्तबीर्य का जीवनरक और मनुष्यगति में जन्म लेकर अच्युत स्वर्ग का प्रतीन्द्र हया।
अच्युतेन्द्र बायु पूर्ण होने पर पूर्व विदेह क्षेत्र के रत्नसंचयपुर में राजा क्षेभंकर की कनकचित्रा नाम की रानी से बचायुध नामक पूत्र हमा। उसके उत्पन्न होने पर सभी को महान हर्ष हया। ज्यों ज्यों बह बड़ा होता गया, उसके गुणों का सौरभ मौर यश चारों ओर फैलने लगा। तरुण होने पर पिता ने उसको युवराज बना दिया। अब-वधायुध राज्य लक्ष्मी और लक्ष्मीमती नामक स्त्री का यानन्दपूर्वक भोग करने लगा। उन दोनों से प्रतीन्द्र का जीव सहस्रायुध नामक पुत्र हुआ।
बच्चायुध अष्टांग सम्यग्दर्शन का निरतिचार पालन करता था। वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि था । एक दिन ऐशान स्वर्ग के इन्द्र ने धर्म-प्रेम के कारण वप्नायुध के सम्यग्दर्शन की निष्ठा की प्रशंसा की। इस प्रशंसा को विचित्र