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भगवान शान्तिनाथ
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एक भयाक्रान्त कबूतर उड़ता हुआ ग्राया और उनकी गोद में बैठ गया। उसके पीछे एक गोध श्राया और खड़ा होकर बोला - महाराज मैं क्षुधा से पीड़ित हूँ। यह कबूतर मेरा भक्ष्य है। यह मुझे दे दोजिये, अन्यथा मेरी मृत्यु निश्चित है।
मेघरथ ने जान लिया कि गोध नहीं बोल रहा है, बल्कि यह ज्योतिष्क देव बोल रहा है। गोध को बोलता देखकर दृढ़रथ को बड़ा ग्राश्चर्य हुआ। उसने पूछा- 'आर्य ! यह गोध इस प्रकार कैसे बोल रहा हे ?' तब मेघरथ कहने लगे - वस्तुतः कबुतर और गोध तो पक्षी ही हैं किन्तु गोध के ऊपर एक देव स्थित है। वह बोल रहा है। यह एक ज्योतिष्क देव है । वह एक दिन ऐशान स्वर्ग में गया था। वहाँ सभासद देव कह रहे थे कि इस समय पृथ्वी पर मेघरथ से बढ़कर दूसरा दाता नहीं है। मेरी प्रशंसा सुनकर इस देव को सहन नहीं हुई, अतः वह मेरी परीक्षा करने छाया है। किन्तु जो मोक्ष मार्ग में स्थित है, वही पात्र है, वही दाता है। माँस देने योग्य पदार्थ नहीं है और मांस को इच्छा करने वाला पात्र नहीं है और इसका देने वाला दाता नहीं है। इसलिये यह गोध दान का पात्र नहीं है पोर यह कबूतर शरणागत है, इसलिये यह देने योग्य नहीं है ।
मेघरथ की यह धर्मयुक्त बात सुनकर वह ज्योतिष्क देव प्रसन्न हुआ योर प्रगट होकर मेघरथ को प्रशंसा करके अपने स्थान को चला गया ।
एक दिन मेघरथ अष्टान्हिका पर्व में पूजा करके उपवास धारण कर रात्रि में प्रतिनायोग से ध्यानारूढ़ थे। तभी ऐशान स्वर्ग में इन्द्र ने प्रशंसा को - राजा मेघरथ सम्यग्दृष्टियों में अग्रगण्य हैं। वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं, धर्मवोर हैं । इन्द्र द्वारा मेघरथ की इस प्रकार प्रशंसा सुनकर अतिरूपा और सुरूपा नाम की दो देवियाँ उनकी परीक्षा के लिये आई। उन्होंने नाना प्रकार के नृत्य, हावभाव, विलास यादि द्वारा मेधरथ को विचलित करना चाहा, किन्तु असफल रहीं और उनकी स्तुति कर चली गई ।
किसी दिन भगवान धनरथ नगर के बाहर मनोहर उद्यान में पधारे। मेघरथ उनके दर्शनों के लिये गये । भगवान का उपदेश सुनकर उन्होंने सम्पूर्ण आरम्भ परिग्रह का त्याग करने का संकल्प किया और अपने छोटे भाई दृढरथ से बोले- मैं दोक्षा लेना चाहता हूँ, तुम राज्य संभालो । दृढरथ बोला- आप जिस कारण से राज्य का परित्याग करना चाहते हैं, मैं उसी कारण से इसे ग्रहण नहीं करना चाहता। राज्य को ग्रहण कर एक दिन छोड़ना हो पड़ेगा तब उसे पहले ही ग्रहण करना पच्छा नहीं है । तब मेघरथ ने अपने पुत्र मेघसेन का राज्याभिषेक करके अपने छोटे भाई और सात हजार राजानों के साथ भगवान धनरथ के पास दीक्षा ग्रहण कर लो ।
वे क्रम से ग्यारह अंग के बेत्ता हो गये और उन्होंने सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन किया, जिससे उन्हें सातिशय पुष्प वाली तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हो गया। वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों धारानाओं को निरन्तर विशुद्धि बढ़ाते जा रहे थे । अन्त में नभस्तिलक नामक पर्वत पर थपने छोटे भाई एक माह तक प्रायोपगमन नामक समाधि धारण कर ली । मन्त में शान्त भावों से शरीर छोड़कर अनुत्तर विमान में के साथ दृढरथ हमिन्द्र हुए । दृढ़र भी अहमिन्द्र बने ।
भगवान शान्तिनाथ
हस्तिनापुर नगरी में काश्यप गोत्री महाराज विश्वसेन राज्य करते थे । गान्धार नरेश राजा प्रजितजय की पुत्री एरा उनकी महारानी थीं। उनकी सेबा इन्द्र द्वारा भेजो हुई श्री, ह्री, घृति यादि देवियों करती थीं। भाद्रपद कृष्णा सप्तमी को भरणी नक्षत्र में रात्रि के चतुर्थ भाग में उन्होंने शुभ सोलह स्वप्न देखे । स्वप्नों के बाद उन्होंने मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा। उसी समय मेघरच का जीव अनुत्तर विमान से च्युत होकर महारानी के गर्भ में अवतरित हुआ। प्रातः काल की भेरी
गर्भ कल्याणक