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एकादश परिच्छेद
भगवान शीतलनाथ
पुष्करवर द्वीर के विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर बत्स नामक देश था। उसके सुसीमा नगर में पद्मगुल्म नामक राजा राज्य करता था। वह साम, दाम, दण्ड और भेद का ज्ञाता था। सहाय, साधनोपाय, देश
विभाग, काल विभाग श्रीर विनिपात प्रोकार इन पांच अंगों से युक्त सन्धि-विग्रह का सम्यक् पूर्व भव
विनियोग करने वाला था। उसने अपने बुद्धि-कौशल से स्वामी, मंत्री, कोट, कोष, मित्र, देश
और सेना का लव प्रभाव-विस्तार किया था। वह देव, बुद्धि और पुरुषार्थ द्वारा लक्ष्मी की निरन्तर वृद्धि करता रहता था । बसन्त ऋतु के आगमन होने पर वह प्रतिदिन अपनी रानियों के संग विविध क्रीडा किया करता था। जब वसन्त ऋतु समाप्त हो गई तो उसे संसार की इस क्षणभंगुरता से वैराग्य हो गया और चन्दन नामक अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंपकर प्रानन्द नामक मुनिराज के पास जाकर उसने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उसने निरन्तर तपश्चर्या करते हए ग्यारह अंग का अध्ययन किया और षोडश कारण भावनाओं का चिन्तन करते इए तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध कर लिया। वह चारों आराधनायों का पाराधन करता हुआ प्रायु के अन्त में समाधिमरण धारण करके प्रारण नामक पन्द्रहवें स्वर्ग का इन्द्र बना ।
भरत क्षेत्र में मलय नामक देश था। उसमें भद्रपुर नगर के स्वामी इक्ष्वाकु कुल के भूषण राजा दृढ़रथ राज्य करते थे। उनकी प्राणवल्लभा का नाम महारानी सुनन्दा था। कुबैर को प्राज्ञा से यक्ष देवों ने भगवान के
गर्भावतरण से छह मास पहले से महाराज दवरथ के प्रासाद में रत्न-वर्षा करना प्रारम्भ गर्भ कल्याणक कर दिया। एक दिन महारानी मुनन्दा ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में सोलह स्वप्न देखे और
उसके बाद एक विशालकाय हाथी को मुख में प्रवेश करते हुए देखा। उसी समय चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन पूर्वापाढ़ा नक्षत्र में वह आरणन्द्र का जोच रानी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ।
प्रातःकाल होने पर महारानी ने महाराज के पास जाकर अपने स्वप्नों की चर्चा की। महाराज ने ज्ञान से जानकर उनके फल बताते हुए कहा-देवि तुम्हारे गर्भ में त्रिलोकीनाथ तीर्थकर देव अवतरित हुए हैं। सुनकर महारानी अत्यन्त प्रसन्न हुई। देवों ने आकर गर्भकल्याणक की पूजा की।
__ जन्म कल्याणक-गर्भ-काल पूर्ण होने पर माघ कृष्णा द्वादशी के दिन विश्वयोग में महारानी ने पुत्र-प्रसव किया। उसी समय चारों जाति के देव और इन्द्र पाकर बड़े समारोह के साथ बाल भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले गये। वहां उन्होंने क्षीरसागर के जल से भगवान का अभिषेक किया। सौधर्म इन्द्र ने भगवान की भक्ति से विठ्ठल होकर ताण्डव नृत्य किया और बालक का नाम शीतलनाथ रखा। उनका लांछन श्रीवृक्ष था।
वीक्षा कल्याणक-बालक शीतलनाथ दूज के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगे। जब किशोरवय पार कर वे यौबन अवस्था को प्राप्त हुए, उनके पिता ने उन्हें राज्याभिषेक करके राज्य सौप दिया और स्वयं मुनि बन गये। भगवान राज्य पाकर न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। प्रजा उनके सुशासन से इतनी सन्तुष्ट थो कि वे प्रजा के हृदय-सम्राट् कहलाते थे।
एक दिन वे वन-विहार के लिए गये। वे जब वन में पहुँचे, उस समय कोहरा छाया हुआ था । किन्तु सूर्यो