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सुदर्शन बलभद्र, नारायण पुरुषसिंह और प्रतिनारायण मधुक्रीड
वे आहार के लिये पाटलिपुत्र नामक नगरी में गये । वहाँ धन्यषेण नामक राजा ने उत्तम पात्र के लिये आहार दान देकर पंचाश्चर्यं प्राप्त किये।
केवलज्ञान कल्याणक - भगवान ने एक वर्ष तक तपस्या की । फिर वे बिहार करते हुए दीक्षा वन में पधारे । वहाँ सप्तच्छद वृक्ष के नीचे बैठकर और दो दिन के उपवास का नियम लेकर योग धारण कर लिया और पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में उन्हें लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्रगट हुआ । देवों ने आकर केवलज्ञान कल्याणक की पूजा की ।
इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने समवसरण की रचना की । वहाँ गन्धकुटी में सिहासन पर विराजमान होकर भगवान की प्रथम दिव्य ध्वनि खिरी और इस तरह उन्होंने रतनपुरी में धर्म चक्र प्रवर्तन किया ।
भगवान का परिकर - भगवान धर्मनाथ के संघ में ग्ररिष्टसेन आदि ४३ गणधर थे । ६११ पूर्वधर, ४०७०० शिक्षक, ३६०३ अवधिज्ञानी, ४५०० केवलज्ञानी, ७००० विक्रिमा ऋद्धिधारी, ४५०० मन:पर्ययज्ञानी और २८०० वादी थे । इस प्रकार उनके संघ में मुनियों की कुल संख्या ६४००० थी । सुश्रुता आदि कायें थीं । २००००० श्रावक और ४००००० श्राविकायें थी ।
६२४०० आर्थि
निर्वाण कल्याणक - भगवान विभिन्न आर्य देशों में बिहार करके धर्मोपदेश द्वारा भव्य जीवों का कल्याण करते रहे । अन्त में वे बिहार बन्द करके सम्मेद शिखर पहुँचे। वहाँ एक माह का योग निरोध करके आठ सौ नौ मुनियों के साथ ध्यानारूढ़ हुए तथा ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी के दिन रात्रि के अन्तिम भाग में पुष्य नक्षत्र में निर्वाण प्राप्त किया। उसी समय देवों और इने प्राककल्याणक की पूजा की।
यक्ष-यक्षिणी - भगवान धर्मनाथ के यक्ष का नाम किन्नर और दक्षिणी का नाम परभृती था ।
रतनपुरी - रतनपुरी कल्याणक क्षेत्र है। इस नगर में भगवान धर्मनाथ के गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवल ज्ञान कल्याणक हुए थे । यह क्षेत्र जिला फैजाबाद में अयोध्या से वाराबंकी वाली सड़क पर १५ मील है। फैजाबाद से सिटी बस मिलती है । रौनाही के चौराहे पर उतरना चाहिए। सड़क से गांव डेढ़ मील है। कच्चा मार्ग है । गाँव का नाम रौनाही है। सरयू नदी के तट पर दो दिगम्बर जैन मन्दिर हैं । एक मन्दिर में मूर्तियाँ हैं । कहते हैं, यहाँ भगवान का जन्म कल्याणक हुआ था। दूसरे मन्दिर में चरण विराजमान हैं । कहा जाता है, यहाँ भगवान का गर्भ कल्याणक हुआ था ।
सुदर्शन बलभद्र, नारायण पुरुषसिंह और प्रतिनारायण मधुकीड़
राजगृह नगर में राजा सुमित्र राज्य करता था। वह बड़ा भारी मल्ल था। उसने बड़े-बड़े मल्लों को मल्ल-युद्ध में पछाड़ दिया था। इसका उसे अभिमान भी था। लोग उसका बड़ा सम्मान करते थे। एक बार मल
पूर्व भव
युद्ध विशारद और बल में हाथी के समान राजसिंह नाम का राजा राजगृह याया । उसका अभिप्राय सुमित्र को मल्ल-युद्ध में पराजित करना था। दोनों राजाश्रों का अखाड़े में मल्ल युद्ध हुआ। इसमें सुमित्र पराजित हो गया। इससे उसका मान भंग हो गया । उसे राज्य में रहने में भी लज्जा आने लगी। अतः उसने राज्य-भार अपने पुत्र को सौंप दिया और वह कृष्णाचार्य के पास जाकर दीक्षित हो गया । उसने सिंह निष्क्रीड़ित आदि कठिन तप किये, किन्तु उसके मन में अपने पराभव का संक्लेश बना रहा। अतः उसने मन में यह संकल्प किया कि यदि मेरे तप का कोई फल हो तो मुझे इतना बल और पराक्रम प्राप्त हो कि मैं अपने शत्रुओं को जीत सकूं ।