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षोडस परिच्छेद भगवान धर्मनाथ
धातकी खण्ड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्स नामक एक देश था। उसमें सुसीमा नामक एक नगर था। वहाँ राजा दशरथ राज्य करता था। उसके पास बुद्धि और बल था, भाग्य उसके पक्ष में था। इसलिये उसने तमाम
शत्रयों को अपने वश में कर लिया था। अत: वह शान्तिपूर्वक राज्य करता था। एक बार पूर्ण रस सैशाख शुरना गिमा कोरा होण उत्सव मना रहे थे। तभी चन्द्रग्रहण पड़ा । उसे देखकर
राजा का मन भोगों से एकदम उदास हो गया। उसने अपने पुत्र महारथ का राज्याभिषेक करके संयम धारण कर लिया। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, सोलह कारण भावनाओं का सतत चिन्तन किया, जिससे उसे तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होगया। अन्त में समाधिमरण करके यह सर्वार्थ सिद्धि विमान में महत मिन्द्र इया । वहाँ उसने तेतीस सागर तक सूख का भोग किया !
रत्नपूर नगर के अधिकारी महाराज भानु थे। वे कुरुवंशी और काश्यपगोत्रो थे। उनकी महादेवी का नाम सुप्रभा था। देवों ने भगवान के गर्भावतार से छह माह पूर्व से रलवष्टि प्रारम्भ की। महारानी ने बैशाख
शुक्ला प्रयोदशी को रेवती नक्षत्र में प्रात:काल के समय सोलह स्वप्न देखे और एक विशाल गर्भ कल्याणप. हाथी मुख में प्रवेश करते हुए देखा । प्रातःकाल उठकर वे अपने पति के पास पहुंची। उन्होंने
रात में देखे हुए स्वप्न सुनाकर उनसे इन स्वप्नों का फल पूछा। महाराज ने अवधिज्ञान से देखकर बताया-देवी ! तुम्हारे गर्भ में तीर्थकर भगवान पाने वाले हैं। सुनकर महारानी को बड़ा हर्ष हुमा । तभी सर्वार्थ सिद्धि का अहमिन्द्र पाय पूर्ण होने पर महारानी के गर्भ में प्रवतीर्ण हया । इन्द्रों ने भाकर गभं कल्याणक का उत्सव किया।
जन्म कल्याणक-नौ माह व्यतीत होने पर माघ शुक्ला त्रयोदशी को पुष्य नक्षत्र में महारानी ने तीन ज्ञान का धारक पुत्र प्रसव किया। उसी समय इन्द्रों और देवों ने पाकर सद्यःजात बालक को सुमेरु पर्वत पर न जाकर क्षीरसागर के जल से जन्माभिषेक किया और भगवान का जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया । इन्द्र ने खालक का नाम धर्मनाथ रक्खा । उनके पैर में वज का चिन्ह था।
जब भगवान यौवन दशा में पहुंचे, तब पिता ने उनका विवाह कर दिया और राज्याभिषेक कर दिया। वहत समय तक उन्होंने राज्य-सुख भोगा। एक दिन उल्कापात देखकर उन्हें वैराग्य हो गया । उन्हें प्रव तक का
जीवन भोगों में व्यतीत करने का बड़ा पश्चात्ताप हमा। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब दीक्षा कल्याणक क्षणभर भी इस अमूल्य जीवन को सांसारिक भोगों में नष्ट न करके प्रात्म-कल्याण करूंगा।
प्रभु का ऐसा निश्चय जानकर लौकान्तिक देव वहाँ माये मौर भगवान की वन्दना करके प्रभु के विचारों को सराहते हुए अपने स्थान को वापिस चले गये। भगवान ने अपने पुत्र सुधर्म को राज्य देकर नागदत्ता नामक पालकी में प्रारूढ़ होकर दीक्षा के लिये गमन किया। उन्होंने दो दिन के उपवास का नियम लेकर माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में एक हजार राजामों के साथ दीक्षा लेली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया।