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सनत्कुमार चक्रवर्ती
१६५ पक्रवर्ती पद-फिर वहाँ प्रायु पूर्ण करके वह अयोध्या नरेश इक्ष्वाकुवंशी सुमित्र की महारानी भद्रा से मघवा नाम का पुत्र हमा। जब उसने किशोर वय पार करके यौवन में पदार्पण किया, उसकी आयघशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुमा । उसकी सहायता से उसने भरत क्षेत्र के षट् खण्डों को विजय को। वह चक्रवर्ती बना। उसके पास नौ निधियों थी। वह चौदह रत्नों का स्वामी था। उसके छियानवे हजार रानियाँ थीं और चक्रवर्ती के योग्य प्रतुल वैभव था। इतना अपरिमित वैभव होते हुए भी वह भोगों में यासक्त नहीं हुमा।
एक दिन नगर के नाम अंचल में स्थित मनोहर उद्यान में अभयघोष केबलो पधारे । उनका प्रागमन मनहर चक्रवर्ती उनके दर्शनों के लिए गया । जाकर उनकी तीन प्रदक्षिणायें दी, वन्दना की और उनसे धर्म का स्वरूप समझा। उपदेश सुनकर चक्रवर्ती के मन में प्रात्म-कल्याण की भावना जागृत हुई। उसने अपने पुत्र प्रियमित्र को राज्य सौप कर सम्पूर्ण प्रारम्भ-परिग्रह का त्याग कर दिया और मोक्ष-प्रसाधक सकल चारित्र धारण कर लिया। जिस प्रकार उसने बाप शत्रुभों पर विजय प्राप्त की थी, इसी प्रकार उसने तपरूपी चक्र से आभ्यन्तर शत्र-क्रमों पर विजय प्राप्त की और चार धातिया कर्मों का नाश करके सर्वज सर्वदर्शी बन गया । जिस प्रकार चक्रवर्ती दशा में उनके पास नव निधि थी, इसी प्रकार केवली दशा में वे नौ केवल लब्धियों के धारक बन गये। अब वे भव्य जीवों को कल्याणकारी मार्ग का उपदेश देने लगे। अन्त में शुक्ल ध्यान के तृतीय और चतुर्थ भेद के द्वारा अधाति-चतष्क का क्षय करके प्रक्षय मोक्ष पद प्राप्त किया।
ये पक्रवर्ती भगवान धर्मनाथ भौर भगवान शान्तिनाथ के अन्तराल में एवं भगवान धर्मनाथ के तीर्थ में
हुए थे।
सनत्कुमार चक्रवर्ती प्रयोध्या नगरी' के प्रधिपति, सूर्यवंशशिरोमणि महाराज अनन्तवीर्य की रानी सहदेवी के गर्भ से सनत्कुमार नामक पुण्यशील पुत्र उत्पन्न हुमा। इसने यौवन अवस्था प्राप्त होने पर भरत क्षेत्र के षट् खण्डों पर विजय प्राप्त करके चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। वे चौथे चक्रवर्ती थे। वे सम्यग्दष्टियों में प्रधान थे। बत्तीस हजार राजा इनकी सेवा करते थे। देव और विद्याधर इनके सेवक थे। वे अतिशय रूपसम्पन्न थे। उनके रूप की प्रशंसा देव तक करते थे।
एक दिन सौधर्म इन्द्र की सभा में ईशान स्वर्ग से संगम नामक देव पाया और प्राकर वह इन्द्र के समीप बैठ गया । जैसे सूर्योदय होने पर तारागण म्लान पड़ जाते हैं, इसी प्रकार उस देव के आने पर अन्य देवों की कान्ति म्लान हो गई। उसे देखकर सभी देव अत्यन्त विस्मित थे। कुछ देव अपने कुतूहल को नहीं दबा सके और इन्द्र से पछने लगे-'किस कारण से यह देव सूर्य के समान तेजस्वी है ?' इन्द्र ने उत्तर दिया-'पिछले जन्म में इसने आचाम्ल वर्धमान तप किया था। उसी के फल से इसे ऐसा रूप मिला है।
देवों ने इन्द्र से पूनः प्रश्न किया--'क्या ऐसा रूप किसी और का भी है ?'
इन्द्र बोला-हाँ, है। हस्तिनापुर में कुरुवंश में उत्पन्न सनत्कुमार चक्रवर्ती का रूप और तेज इससे भी अधिक है। ___इन्द्र की यह बात सुनकर विजय और वैजयन्त नामक दो देव ब्राह्मण का रूप धारण करके कुतूहलवश
१. प्राचार्य गुणभद्रकृत उत्तर पुराण के अनुसार । आराधना कथाकोष के अनुसार नगर का नाम नीतशोक, राजा का नाम अनन्तवीर्य और रानी का नाम सीता। हरिषेण कपाकोष के अनुसार हस्तिनापूर नरेश विश्वसेन की रानी सहदेवी। श्वेताम्बर मान्यता भी यहीं है। केवल विश्वसेन के स्थान पर अश्वसेन नाम है।'