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भगवान विमलनाथ
लगा हुआ था। पथिक ने महाराज को सविनय प्रणिपात करते हुए निवेदन किया- 'महाराज ! आप न्यायावतार हैं। लोक में आपके निष्पक्ष न्याय की ख्याति फैल रही है। मुझे भी न्याय प्रदान करें ।' महाराज ने पूछाआयुष्मन् ! तुम्हें क्या कष्ट है ? पथिक हाथ जोड़कर बोला- प्रभु! मैं परदेशी हूँ। मैं कल रात को कम्पिला के बाह्य उद्यान के मठ में ठहरा था। साथ में मेरी पत्नी थी। किन्तु प्रातःकाल उठने पर पत्नी जैसी ही और स्त्री को देख कर मैं निश्चय नहीं कर पा रहा है कि मेरी वास्तविक पत्नी कौन सी है। कीजिये और मेरी पत्नी मुझे दिला दीजिये । पर-स्त्री मेरे लिये भगिनी और सुला के समान है ।
रंग रूप वाली एक राजन! मेरा न्याय
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राजा ने दोनों स्त्रियों को देखा। दोनों में तिल मात्र भी अन्तर नहीं था। दरबारियों ने भी देखा। सभी हैरान थे । राजा भी कोई निर्णय नहीं कर पा रहे थे। महारानी जयश्यामा ने महाराज की मनःस्थिति को भांव लिया। वे बोलों - 'आर्यपुत्र ! यदि आप अनुमति दें तो मैं इन दोनों स्त्रियों का न्याय कर दूँ ।' महाराज सहर्ष बोले'देवो ! न्याय करके अवश्य मेरी सहायता करिये।' रानी ने क्षणभर में परिस्थिति भांप ली। वे समझ गई कि इनमें एक देवी है अथवा विद्याघरी है, जो बहुरूपिणी विद्या जानती है। उसने अपने विद्या बल से यह समान रूप बना लिया है । यह निश्चय होते ही वे बोलीं- अपने स्थान पर ही खड़ी रह कर तुम दोनों में से जो सिंहासन को छूलेगी, दी इस युवक को पत्नी मान लो जायगी ।
असली पत्नी इस फैसले से भयभीत हो गयी। निराशा के कारण उसके नेत्रों में आंसू छलछला श्राये । किन्तु मायाविनी ! उसने बिना बिलम्ब किये अपना हाथ बढ़ाया और राजसिंहासन का स्पर्श कर लिया। महारानी ने निर्णय दिया - युवक! तुम्हारी पत्नी तुम्हारे निकट खड़ी है। सिहामन का स्पर्श करनेवाली मायाविनी है'। मायाविनी सुनकर बड़ी लज्जित हुई। उपस्थित जनों ने महारानी के इस नीर-क्षीर न्याय की तुमुल हर्ष के साथ सराहना की। जन्म-कल्याणक – जब से भगवान गर्भ में प्राये थे, परिवार और जनता में हर्ष की वृद्धि हो रही थी । नौ माह पूर्ण होने पर माघ शुक्ला चतुर्दशी के दिन अहिर्बुध्न योग में रानी जयश्यामा ने तीन ज्ञान के धारी, तीन लोक के स्वामी भगवान को जन्म दिया । देवों और इन्द्रों ने श्राकर भगवान को सुमेरु पर्वत पर लेजाकर उनका जन्माभिषेक किया । इन्द्र ने उनका नाम विमलनाथ रक्खा। उनके शरीर की कान्ति स्वर्ण के समान थी। उनके पैर में सूमर का चिह्न था ।
भगवान का कुमार काल व्यतीत होने पर उनका विवाह हुआ और राज्याभिषेक हुआ। उनके सुशासन से जनता की सुख-समृद्धि में निरन्तर अभिवृद्धि होती रही। एक दिन भगवान विमलनाथ हेमन्त ऋतु में प्रकृति को शोभा का मानन्द ले रहे थे। चारों ओर वर्फ पड़ रही थी। किन्तु तभी देखा कि सूर्य के ताप से बर्फ पिघलने लगी। बात साधारण थी। किन्तु प्रभु के मन में इस घटना की प्रतिक्रिया दूसरे ही रूप में हुई । वे विचार करने लगे-बर्फ जमी हुई थी, अब वह पिघल रही है। यह क्षणभंगुर है । सभी कुछ क्षणभंगुर है । इन्द्रिय-भोग भी क्षणभंगुर हैं और मैं मोहवश अब तक इनमें उलझा हुआ हूँ। मुझे तो स्थाई सुख पाना है । इन्द्रिय-सुख का त्याग करके ही वह मिल सकेगा ।
दीक्षा कल्याणक
भगवान इस प्रकार विचार कर ही रहे थे, तभी लोकान्तिक देवों ने माकर उनका स्तवन किया और उनके विचारों की सराहना की । देवों ने ग्राकर भगवान के दीक्षा कल्याणक के समय होने वाले अभिषेक का उत्सव किया। फिर देवों द्वारा घिरे हुए भगवान देवदत्ता नाम की पालकी में ग्रारूढ़ होकर सहेतुक वन में गये और वहां दो दिन के उपवास का नियम लेकर माघ शुक्ला चतुर्थी के दिन सायंकाल के समय छन्दीसवे उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा लेली । भगवान को उसी समय मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न होगया ।
भगवान आहार के निमित्त नन्दनपुर नगर में पहुँचे। वहाँ राजा कनकप्रभ ने उन्हें आहार दान देकर पंचाश्चयं प्राप्त किये। भगवान आहार के पश्चात् बिहार कर गये । वे घोर तपस्या करने लगे। इस प्रकार तपस्या करते हुए जब तीन वर्ष बीत गये, तब वे अपने दीक्षा-वन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर केवलज्ञान कल्याणक एक जामुन के वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न हो गये। तभी उन्हें माघ शुक्ला षष्ठी के दिन सायंकाल के समय अपने दीक्षा ग्रहण के नक्षत्र में चार घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान