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स्वयंभू नारायण, मधु प्रतिनारायण
जैन पुराण ग्रन्थों में विमलनाथ भगवान का चरित्र वर्णन करते हुए बताया है कि उस समय पाप की वृद्धि हो गई थी। भगवान विमलनाथ ने पापी पुरुषों का उद्धार किया।
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उक्त दोनों कथाओं में गहराई से झाँक कर देखें तो कोई अन्तर प्रतीत नहीं होना । हिन्दू पुराणों में आलंकारिक शैली द्वारा कथन किया गया है। यदि अलङ्कार योजना को निकाल दिया जाय तो हिन्दू और जैन पुराणों के कथनों में एकरूपता ही मिलेगी और तब हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होगी कि कम्पिला ही वास्तव में शूकर क्षेत्र है, भगवान विमलनाथ ही वस्तुतः बराहावतार है और उन्होंने ही पाप-पंक में डूबती हुई पृथ्वी अर्थात् पृथ्वी पर रहने वालों का उद्धार किया ।
धर्म बलभद्र, स्वयंभू नारायण और मधु प्रतिनारायण
भरत क्षेत्र के पश्चिम विदेह में मित्रनन्दी नामक एक राजा राज्य करता था। वह राजा बड़ा प्रतापी था । उसने अपने बाहुबल द्वारा अनेक देश जीत लिए थे। उससे प्रजा प्रत्यन्त सन्तुष्ट थी। एक दिन सुव्रत नामक मुनिराज का उपदेश सुनकर राजा को वैराग्य हो गया। उसने मुनि व्रत धारण कर लिए। उसने घोर तपस्या की। अन्त में समाधिमरण धारण कर लिया। मरकर वह अनुत्तर विमान में यमिन्द्र हुआ ।
द्वारावती नगरी के राजा भद्र की रानो का नाम सुभद्रा था । वह अहमिन्द्र आयु पूर्ण करके में अवतरित हुआ । उत्पन्न होने पर उसका नाम धर्म रक्खा गया ।
सुभद्रा के गर्भ
कुणाल देश में श्रावस्ती नगर था । वहाँ के राजा का नाम सुकेतु था। कुसंगति के कारण वह कुव्यसनों में लिप्त रहने लगा । वह अत्यन्त कामी था। दिन रात वह जुआ खेलता रहता था । जुश्रा के कारण वह अपनी स्त्री धौर राज्य तक हार गया। जब उसका सब कुछ चला गया तो वह मन में अत्यन्त खिन्न होकर सुदर्शनाचार्य के पास पहुंचा। वहाँ उनका उपदेश सुनकर वह मुनि बन गया । किन्तु उसका मन निर्मल नहीं हो सका। वह शोक के कारण श्राहार का त्याग करके तप करने लगा। उसने बहुत समय तक तप किया । मृत्यु के समय उसने निदान किया कि इस तप के द्वारा मुझे कला, गुण, चतुराई और बल प्राप्त हो। मरकर वह लान्तव स्वर्ग में देव हुया । वहाँ से प्रा पूरी होने पर द्वारावती के राजा भद्र की द्वितीय पत्नी पृथ्वी रानी के स्वयंभू नामक पुत्र हुआ। दोनों भाइयों में
बड़ा
प्रेम था।
राजा सुकेतु से जुआ में बलि नामक राजा ने राज्य जीता था। वह मरकर, रत्नपुर नगर में राजा मधु हुमा १ यह पूर्व जन्म का संस्कार ही था कि राजा मधु के नाम से स्वयंभू को चिड़ थी। एक बार किसी राजा ने राजा मधु के लिए कोई उपहार भेजा, किन्तु महाराज स्वयंभू ने उसे दूत को मारकर छीन लिया। नारद ने यह समाचार मधु को बता दिया । इस अपमानजनक समाचार को सुनते ही मधु को बड़ा कोष प्राया । स्वयम्भू को दण्ड देने के अभिप्राय से मधु विशाल सेना लेकर द्वारावती की ओर चल दिया। उधर दोनों भाई युद्ध के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे । दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुया । मधु स्वयम्भू से युद्ध करने लगा। मधु ने कुपित होकर स्वयम्भू के ऊपर यमराज के समान भयंकर चक्र फेंका। मघु अब तक भरत क्षेत्र के आधे भाग का स्वामी था। चक्र, गदा, षादि वो अस्त्र उसके पास थे । किन्तु भव उसके पुण्य का कोष रीता हो चुका था । चक्र तीव्रगति से स्वयम्भू की मोर प्राया और प्रदक्षिणा देकर उसकी दाहिनी भुजा पर श्राकर टिक गया। राजा स्वयम्भू ने क्षुब्ध होकर उसी चक्र से मधु का सिर काट दिया। तब स्वयम्भू तोनों खण्डों का स्वामी बन गया । बलभद्र और नारायण दोनों भ्राता मानन्दपूर्वक राज्य करने लगे। आयु पूर्ण होने पर नारायण की मृत्यु हो गई । भ्रातृ-शोक से बलभद्र धर्म के हृदय को बड़ा आघात लगा । उसे संसार से ही वैराग्य हो गया। वह भगवान विमलनाथ की शरण में पहुँचा मौर मुनि दीक्षा ले लो। उसने घोर तपस्या को और अन्त में कर्मों का क्षय करके वह मुक्त हो गया ।