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अतुर्दश परिच्छेद भगवान विमलनाथ
धातकीखण्ड द्वीप में मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर सीता नदी के दक्षिण तट पर रम्यकावती नामक एक देश था। उसके महानगर में पद्मसेन नामक राजा राज्य करता था। नीति शास्त्र में स्वदेश और परदेश ये विभाग
किये गये हैं। उनके अर्थ का निश्चय करने में वह अनुपम था । प्रजा न्याय का कभी उलंघन पर्व भव नहीं करती थी और राजा प्रजा का उलंघन नहीं करता था। धर्म, अर्थ और काम ये त्रिवर्ग
राजा का उलंघन नहीं करते थे और त्रिवर्ग परस्पर एक दूसरे को उलंघन नहीं करते थे। एक दिन राजा पद्मसेन वन में गया । वहाँ सर्वगुप्त केवली विराजमान थे। राजा ने उनके दर्शन किये और उनका कल्याणकारी उपदेश सुना। इससे उसके मन में संसार से विराग हो गया। उसने अपने पत्र पदमनाभ को राज्य सौंप दिया और मनि-दीक्षा लेकर तप करने लगा। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन करके उन परे दर प्रत्यय किया । एवं सोलह कारण भावनामों का निरंतर चिन्तन करने से उसे तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हो गया। सन्त समय में चार पाराधनाओं का माराधन करके सहस्रार स्वर्ग में इन्द्र पद प्राप्त किया।
भरत क्षेत्र में काम्पिल्य नगर के स्वामी कृतवर्मा राज्य करते थे जो ऋषभदेव भगवान के वंशज थे, इक्ष्वाक बंशी थे। जयश्यामा उनकी पटरानी थी। सहस्रार स्वर्ग का वह इन्द्र जब मायु पूर्ण करके महारानी के गर्भ
में माने वाला था, उससे छह माह पूर्व से भगवान के स्वागत में इन्द्र की पाजा से कूवेर ने गर्भ कल्याणक काम्पिल्य नगर और राजप्रासाद में रत्न-वर्षा प्रारम्भ कर दी। महारानी एक रात को सुख
निद्रा का अनुभव कर रही थी, तभी उन्होंने रात्रि के अंतिम प्रहर में सोलह स्वप्न देखे और बामें मुखकमल में प्रवेश करता हुमा एक हाथी देखा । यह ज्येष्ठ कृष्णा दशमी का दिन था और उत्तरा भाद्रप नक्षत्र था, जब सहस्रार स्वर्ग के उस इन्द्र के जीव ने माता के गर्भ में प्रवेश किया।
प्रातःकाल उठकर महारानी पतिदेव के पास पहंीं और उनसे रात्रि में देखे हए स्वप्नों की चर्चा करके उनका फल जानना चाहा । महाराज ने विचार कर कहा-देवो! तुम्हारे गर्भ में त्रिलोकीनाथ तीर्थकर प्रभ अवतरित हुए हैं। सनी स्वप्नों के फल सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई। देवों और इन्द्रों ने आकर भगवान के गर्भ कल्याणक की पूजा की तथा वे माता-पिता और भगवान को नमस्कार करके वापिस चले गये !
एक दिन कम्पिला के उद्यान में एक दम्पति ठहरे। लम्बा मार्ग तय करके भाये थे । पति-पत्नी दोनों थके हुए थे। लेटते ही गहरी नींद आ गई । प्रातःकाल होने पर पति की नींद खुली। उसने पांखें खोलकर देखा तो
उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही, उसके निकट दो स्त्रियाँ थीं । दोनों का रूप-रंग, वस्त्र महारानी जयश्यामा आभूषण सभी कुछ एक से थे। पति अपनो वास्तविक पत्नी को पहचानना चाहता था, किन्तु का न्याय पहचानने का कोई उपाय नहीं था। वह एकपत्नी व्रती था 1 पर-स्त्री के संसर्ग से अपनी रक्षा
चाहता था। किन्तु एक ही रंग रूप की दो स्त्रियों में से अपनी पत्नी को वह पहचाने कसे? पाखिर उसने राजा से न्याय कराने का निश्चय किया।
पथिक दोनों स्त्रियों को लेकर राजदरबार में पहुँचा। महाराज सुकृतवर्मा सिंहासन पर विराजमान थे। उनके बाम पावं में उनकी प्राणवल्लभा जयश्यामा बैठी हुई थीं। महारानी के मुख पर अलौकिक कान्ति थी। दरबार