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त्रिपृष्ठ नारायण राजगृह नगर के अधिपति विश्वभूति और उसकी पत्नी जनी के एक ही पुत्र था, जिसका नाम विश्वनन्दी निवान बन्ध था । विश्वभूति का एक भाई था विशाखभूति। उसकी स्त्री का नाम लक्ष्मणा था। उनके पुत्र का नाम विशाखनन्द था । वह निपट मूर्ख था।
एक दिन शरद ऋतु के मेघ का नाश देखकर विश्वभूति नरेश को वैराग्य हो गया। उसने अपने छोटे भाई विशाखभूति को राज्य दे दिया और युवराज पद अपने पुत्र विश्वनन्दी को देकर मुनि-दीक्षा ले ली। विशाखभुति राज्य-शासन चलाने लगा।
उस नगर के बाहर नन्दन उद्यान था, जो लताओं, गुल्मों और पुष्पों से परिपूर्ण था। विश्वनन्दी को यह उद्यान बहुत पसन्द था। एक दिन वह अपनी स्त्रियों के साथ उस स्थान में विहार कर रहा था। विशाखनन्द ने उसे देखा और द्वेषवश वह उस उद्यान पर अधिकार करने का उपाय सोचने लगा। तभी वह अपने पिता विशाखति के पास पहुंचकर बोला-'यह नन्दन उद्यान मैं चाहता हूं। इसे पाप मुझे दे दीजिये, अन्यथा मैं राज्य छोड़कर पन्यत्र चला जाऊँगा।' विशाखभूति बोला-'यह क्या बड़ी बात है। वह उद्यान तुम्हें दे दूंगा।'
राजा ने युवराज विश्वनन्दी को बुलाया और कहने लगा-पुत्र! मैं समीपवर्ती राजाओं पर आक्रमण करके उनके उपद्रव शान्त करने जा रहा है। तब तक राज्य का भार तुम ग्रहण करो।' विश्वनन्दी यह सुनकर बोला-'पूज्यपाद! आप यहीं पर निश्चिन्त रहें। मैं जाकर अल्प काल में उन राजामों को पराजित करके शीघ्र लौट आऊँगा।'
विश्वनन्दी चाचा की प्राज्ञा से सेना सजाकर चल दिया। तभी विशाखभूति ने नन्दन उद्यान अपने पूत्र विशाखनन्द को दे दिया। विश्वनन्दी को इस घटना का पता तत्काल चल गया ! उसे चाचा के इस छल को देखकर बड़ा क्रोध पाया। वह फौरन लौट माया मोर उद्यान पर अधिकार करने वाले विशाखनन्द को मारने को उद्यत हो गया। विशाखनन्द भयभीत होकर कैथ के वृक्ष पर चढ़ गया । विश्वनन्दी ने क्रोध में उस वृक्ष को जड़ समेत उखाड़ डाला और उसी से विशाखनन्द को मारने को झपटा। विशाखनन्द वहाँ से भागकर एक पाषाण-स्तम्भ के पीछे जा छिपा। विश्वनन्दी पीछा करता हुआ वहीं जा पहुंचा और मुष्टिका प्रहार से उस स्तम्भ को ही तोड़ दिया। विशाखनन्द वहाँ से भी भागा। तब विश्वनन्दी को उस पर दया मा गई और उसे अभय देते हुए वह उद्यान भी उसे ही दे दिया किन्तु मन में ऐसी खिन्नता भर गई कि वह तत्काल वहाँ से चलकर सम्भूत मुनि के पास पहुँचा और उनसे मनि-दीक्षा ले ली। इस घटना से विशाखभूति को भी बड़ा पश्चाताप हुमा, उसे अपनी भूल पर दुःख हमा और उसने भी राजपाट छोड़ कर संयम धारण कर लिया।
मूनि विश्वनन्दी घोर तपश्चर्या करने लगे। शरीर अत्यन्त कृश हो गया। बिहार करते हुए वे मयरा
माहार के निमित्त नगर में गये । शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था, पैर डगमगा रहे थे। विशाखनन्द व्यसनों के कारण राज्यभ्रष्ट होकर मथुरा आया हुआ था। उस समय वह एक वेश्या के मकान की छत पर बैठा हम्रा था। तभी एक सद्य:प्रसूता गाय ने मुनि विश्वनन्दी को धक्का देकर गिरा दिया। उन्हें गिरते देखकर विशाखनन्दी उनका उपहास करता हुमा बोला-पत्थर का खम्भा तोड़ने वाला तुम्हारा पराक्रम क्या यही है?' बात मुनि के मन में चभ गई। उन्होंने निदान किया कि में इस उपहास का बदला विशाखनन्दी से अवश्य लूंगा। इस प्रकार निदान-बन्ध कर