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त्रयोदश परिच्छेद
भगवान वासुपूज्य पृष्करा दीप के पूर्व मेरु की अोर सीता नदी के दक्षिण तट पर बत्सकावती नाम का देश था। उसके रन्नगर नगर का स्वामी पदमोतर नाम का राजा था। उस राजा की कीति चारों दिशामों में व्याप्त थी। वह पनेक
गुणों का पंज और प्रजा-वत्सल था। एक दिन मनोहर पर्वत पर युगन्धर जिनराज पधारे। पूर्व भन राजा को उनके पागमन का समाचार मिलते ही वह उनके दर्शनों के लिए पहुंचा। उसने भक्ति
पूर्वक जिनराज की वन्दना और स्तुति की। भगवान का उपदेश सुनकर उसका मन वैराग्य के १ में रंग गया। उसे संसार नि:सार अनुभव होने लगा। उसने तभीमाकर अपने पुत्र धनमित्र को राज्य सौंप दिया और गलेका राजानों के साथ जिनदेव से मुनि-दीक्षा ले ली। उसने जिनराज के चरणों में ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, दर्शन विशुद्धि प्रादि भावनाओं का निरन्तर चिन्तन किया । फलतः उसे तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध हो गया। अन्त में सन्यास मरण करके वह महाशुक्र विमान में इन्द्र बना।
चम्पा नगरी अंग देश की राजधानी थी। वहां के अधिपति महाराज वसुपूज्य ये जो इक्ष्वाकु वंशी काश्यप गोत्री थे। उनकी पत्नी का नाम जयावती था। गर्भकल्याणक से छह माह पूर्व से देवों ने उन
प्रारम्भ किया। रानी ने भाषाढ कृष्णा षष्ठी के दिन चौबीसवें शतमिषा नक्षत्र में रात्रिके गर्भ कल्याणक अन्तिम प्रहर में सोलह स्वप्न देखे। उन्होंने प्रातःकाल होने पर पति से स्वप्नों की चर्चा की
बार उनका फल पूछा। पतिदेव ने उनका फल वर्णन किया, सुनकर रानी बड़ी हर्षित हुई। जमी दिन महाशकेन्द्र का जीव पाय पूरी करके उनके गर्भ में अवतरित हुमा । देवों ने प्राकर भगवान का गर्भ कल्याणक महोत्सव किया।
नीवं माह के पूरे होने पर फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी के दिन वारुण योग में सब प्राणियों का हित करने वाले पत्र का जन्म हम्रा । वह पुत्र असाधारण था, उसका जन्म-महोत्सव भी असाधारण ढंग से मनाया गया। जाना
के देव और इन्द्र चम्पापुरी में पाये। सौधर्मेन्द्र शची द्वारा सौर गह से लाये हए बालकको जन्म कल्याणक राबत गज पर आरूढ़ करके सब देवों के साथ सुमेरु पर्वत पर पहुंचे। वहां उन्होंने क्षीर
सागर के जल से प्रभु का जन्माभिषेक किया 1 शची ने प्रभु का शृंगार किया। फिर बालकको लेकर चंपापरी लौटे। बालक को माता को सौंपा पोर इन्द्र ने बालक का नाम वासुपूज्य रक्खा । इनका शरीर लाल कमल के समान लाल था । पर में भैसे का चिन्ह था ।
भगवान के पूण्य-प्रभाव से माता-पिता तथा प्रजा के धन-धान्य, सुख-ऐश्वर्य सभी प्रकार की जाती लगी। बाल भगवान गुणों को खान थे । जब भगवान यौवन अवस्था को प्राप्त हुए, तब उन्होंने विवाह के बन्धन में
बंधना स्वीकार नहीं किया और वे माजन्म ब्रह्मचारी रहे । एक दिन वे एकान्त में बैठे चिन्तन दीक्षा कल्याणक में लीन थे, तभी अवधिज्ञान से उन्होंने अपने पिछले जन्म का ज्ञान किया। उनके गत जन्म में
जो नाना घटनायें घटित हुई थी, उन्हें जानकर मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि यहाँ सब चंचल है, नाशवान है। जो है, सब राग रूप है, दुःख रूप है। फिर ऐसे संसार से मोह जोड़कर लाभ क्या? जिसका विछोड़ अनिवार्य है, उससे ममत्व का नाता क्यों?