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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
वाली श्याम वर्ण मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा सम्वत् १८८१ में मार्गशीर्ष शुक्ला षष्ठी शुक्रवार कोपभौसा पर्वत पर हई थी। यह भेलूपुरा के मन्दिर से पाकर यहाँ विराजमान की गई थी। इस प्रतिमा के आगे भगवान श्रेयान्सनाथ की एक श्वेत वर्ण तथा भगवान पार्श्वनाथ की श्यामवर्ण प्रतिमा विराजमान है । वेदी के पृष्ठ भाग में एक अल्मारी में एक शिलाफलक में नन्दीश्वर चैत्यालय हैं, जिसमें ६० प्रतिमाय बनी हुई हैं। यह भूगर्भ से मिली थी।
मन्दिर के प्रागे सरकार की ओर से घास का लान और पूष्प-वाटिका बनी हुई है। यहीं पर प्रशोक द्वारा निमिस स्तूप बना हुया है जो १०३ फुट ऊँचा है। स्तूप के ठीक सामने सिंहद्वार बना हुआ है। द्वार बड़ा कलापूर्ण है। दोनों स्तम्भों के शीर्ष पर सिंहचतुष्क बना हुमा है। सिंहों के नीचे धर्मचक्र और दाई-बाई मोर बैल और घोडे की मूर्तियाँ अंकित हैं। इसी स्तम्भ की सिहत्रयी को भारत सरकार ने राजचिन्ह के रूप में मान्यता प्रदान की
मि-चक्र की राज्य-ध्वज पर प्रकित किया गया है। यह बोद्ध तीथं माना जाता है, जहाँ बुद्ध ने धर्म-चक्र प्रवर्तन किया था।
कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह स्तूप भगवान श्रेयान्सनाथ की स्मृति में सम्राट अशोक के पौत्र सम्राट सम्प्रति ने बनवाया था। सारनाथ नाम भी श्रेयान्सनाथ से बिगड़ कर बना है।