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द्वादश परिच्छेद भगवान श्रेयान्सनाथ
पुष्कराध द्वीप में पूर्व विदेह क्षेत्र स्थित सुकच्छ देश के क्षेमपुर नगर में नलिनप्रभ नामक राजा राज्य करता था। वह न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करता था । वह धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थों का सन्तुलित रूप से
उपयोग करता था। एक दिन बनपाल ने हर्ष-समाचार सुनाया कि सहस्रान वन में अनन्त पूर्व भव जिनेन्द्र पधारे हैं । यह समाचार सुनकर वह अपने परिजन और पुरजनों से युक्त उस वन
में पहुँचा । वहाँ उसने जिनेन्द्र देव की पूजा की, स्तुति की और फिर वह अपने योग्य प्रासन पर बैठ गया। तब जिनेन्द्रदेव का धर्मोपदेश हुना। उपदेश सुनकर उसे एक प्रकाश मिला । वह विचार करने लगामैंने मोहवश, अनादिकाल के संस्कारवश यह परिसह एकत्रित किया है। इसका त्याग.किये बिना कल्याण संभव नहीं है। तब समय नष्ट करने से क्या लाभ है । यह सोचकर उसने अपने पुत्र सूपुत्र का राज्याभिषेक कर दिया और अनेक राजामों के साथ उसने संयम ग्रहण कर लिया । उसने कठिन तप का आचरण किपा, ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, षोडश कारण भावनाप्रो का सतत चिन्तन किया । फलत: उसे तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हो गया। प्रायू के अन्त में समाधिमरण करके वह अच्युत नामक सोलहवं स्वर्ग का इन्द्र बना।
भरत क्षेत्र में सिन्नपूर मगर के प्रधिपति महाराज विष्णु नामक. राजा थे, जो वादशी। उनकी महारानी का नाम नन्दा था। देवों ने गर्भावतरण से छह माह पूर्व से पन्द्रह माह तक रत्नवर्षा की। एक दिन
महारानी ने ज्येष्ठ कृष्णा षष्ठी के दिन श्रवण नक्षत्र के योग में प्रातःकाल के समय सौलह स्वप्न गर्भावतरण देखे और अपने मुख में एक हाथी को प्रवेश करते हुए देखा। उसी समय अच्युतेन्द्र का जीव
अपनी आयु पूरी करके महारानी नन्दा के गर्भ में अवतरित हुला। प्रातःकाल उठने पर महारानी ने अपने पति के पास जाकर उन्हें अपने देखे हए स्वप्न सुनाये और उनका फल पूछा । महाराज ने स्वप्न सुनकर बढ़ा हर्ष प्रगट किया और स्वप्नों का फल बताया कि तुम्हारे गर्भ में तीर्थकर ने अवतार लिया है। इन्द्रों और देवों ने पाकर तीर्थकर के गर्भ कल्याणक का महोत्सव किया।
देवियाँ माता की सेवा करती थीं। वे उनका मनोरंजन करने से लेकर स्नान आदि सब काम करती थीं। माता को गर्भ का काल कब व्यतीत हो गया, यह पता ही नहीं चला और फागुन कृष्णा एकादशी के दिन विष्णयोग
में तीन ज्ञान के धारक तीन लोक के प्रभ को जन्म दिया। पुत्र का जन्म होते ही तीनों लोकों जन्म कल्याणक के जीवों का मन हर्ष से भर गया। रोगियों के रोग शान्त हो गये। शोक वाले शोक रहित
हो गये । तभी चारी जाति के देव अपने इन्द्रों के साथ विविध वाहनों पर पाये । चारों ओर देव दुन्दुभि बजा रहे थे, देवांगनाय नृत्य कर रही थीं, गन्धर्व मधुर गान कर रहे थे । सारे लोक में हर्ष व्याप्त था। इन्द्राणी द्वारा लाये हुए बालक को सौधर्मेन्द्र ने गोद में लेकर सहस्र नेत्र बनाकर उस बाल-प्रभु के दर्शन किये पौर ऐरावत हाथी पर बैठाकर देवों के साथ सुमेरु पर्वत पर जा पहुंचा। वहीं देवों ने क्षीरसागर के जल से परिपूर्ण
जार कलशों से भगवान का अभिषेक किया। इन्द्राणी ने उन्हें वस्त्राभुषणों से अलंकृत किया। सौधर्मेन्द्र ने उनकी लोकोत्तर छवि देखते हए उनका नाम धेयान्स रक्खा । उनका चिन्ह गेंडा था।