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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
सन् १८६६ में प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता श्री नन्दलाल डे ने यहाँ का निरीक्षण करके इस पर्वत को मंकुल पर्वत माना था, जहाँ भ० बुद्ध ने अपना छठवाँ चातुर्मास किया था तथा इस मन्दिर पर स्थित मन्दिरों और मूर्तियों को बौद्ध लिखा था । किन्तु सन् १९०१ में डा० एम० ए० स्टन ने एक लेख लिखकर यह सिद्ध किया था कि यहाँ के सारे मन्दिर और मूर्तियाँ वस्तुतः जैन हैं और यह पर्वत जैन तीर्थकर शीतलनाथ की पवित्र जन्म-भूमि है । तभी से यह स्थान प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ । यहीं नहीं, इसके आस-पास में सतगवां, कुन्दविला, बलरामपुर, ओम, दारिका, छर्रा, डलमा, कतरासगढ़, पवनपुर, पाकवीर, तेलकुपी आदि में अनेक प्राचीन जैन मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं । भोंदलगांव के निकट तो श्रावक गांव और श्रावक पहाड़ भी है। इस सबसे यह सहज ही अनुमान होता है कि यह स्थान कभी जैन धर्म का महान् केन्द्र था और इसके निकट का सारा प्रदेश जैन धर्मानुयायी था ।
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कोल्हुआ पहाड़ पर जाने के दो मार्ग हैं-पश्चिम की ओर से हटवारिया होकर तथा पूर्व की ओर से घाटी में होकर । हटवारिया की ओर से चढ़ने पर लगभग एक किलोमीटर चलने पर भगवान पार्श्वनाथ की पौने दो फुट श्रवगाहना वाली एक प्रतिमा मिलती है। हिन्दू जनता इसे 'द्वारपाल' कहती है। इससे दो कि० मी० श्रागे चलने पर एक भग्न कोट मिलता है । फिर एक तालाब ३००४७०० गज का मिलता है। सरकार की ओर से इसकी खुदाई कराई गई थी । फलतः एक सहस्रकूट चत्यालय मिला। इसमें ढाई इंच वाली पचास प्रतिमायें हैं। सरोवर के किनारे अनेक खण्डित ग्रखण्डित जैन प्रतिमायें और जैन मन्दिरों के अवशेष बिखरे पड़े हैं ।
कोटद्वार के दक्षिण पूर्व की ओर कुलेश्वरी देवी का मन्दिर है, जो मूलतः जैन मन्दिर था । मन्दिर के दक्षिण की भोर एक गुफा में पार्श्वनाथ है जो एक दूसरी गुफा में एक पद्मासन तीर्थकर मूर्ति है।
है।
सरोवर के उत्तर में एक छोटा-सा प्राचीन जैन मन्दिर है, जिसके ऊपर पांच शिखर हैं। इसे सर्व सैटिलमेण्ट के नशे में पार्श्वनाथ मन्दिर माना है । मन्दिर के बाहर जो चबूतरा उसे पार्श्वनाथ चबूतरा लिखा | आगे जाकर आकाश लोचन कूट है। उस पर पाठ इंच लंबे चरण बने हुए हैं। इससे कुछ श्रागे एक गुफा में एक फुट अवगाहना वाली दस प्रतिमायें एक चट्टान में उकेरी हुई हैं। इससे आगे एक चट्टान में पांच पद्मासन और पांच खड्गासन प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। भूल से लोग इन्हें पांच पाण्डवों प्रौर दशावतार की प्रतिमायें कहने लगे हैं ।
भोंदलगांव छोटा-सा गांव है। अनुसन्धान किया जाय तो यहाँ भी जैन मन्दिर और मूर्तियाँ मिल
सकती हैं।
भगवान शीतलनाथ के तीर्थ का अन्तिम चरण था । उस समय वक्ता, श्रोता और धर्माचरण करने वाले व्यक्तियों का प्रभाव हो गया । उस समय भद्विलपुर में मलय देश का राजा मेघरथ था। एक दिन राजा ने राज्य सभा में प्रश्न किया— सबसे अधिक फल देने वाला दान कौन सा है ? इसके उत्तर में सत्यकीर्ति नामक मंत्री, जो दान के तत्त्व को जानने वाला था— कहा- 'माचार्यों ने तीन दान सर्वश्रेष्ठ बताये हैं- शास्त्रदान, अभयदान और अन्नदान
मिष्यादान का इतिहास
अन्नदान की अपेक्षा प्रभयदान श्रेष्ठ है और अभयदान की अपेक्षा शास्त्रदान उत्तम है। प्राप्त द्वारा कहा हुआ और पूर्वापर अविरोधी एवं प्रत्यक्ष-परोक्ष से वाधित न होने वाला शास्त्र ही सच्चा शास्त्र कहलाता है। ऐसे शास्त्र का व्याख्यान करने से संसार के दुःखों से त्रस्त व्यक्तियों का कल्याण होता है । अतः शास्त्र दान ही सर्वोत्तम फल देने वाला है । इस दान के द्वारा ही हेय और उपादेय तत्व का बोध होता है। किन्तु राजा को यह रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ । अपनी कलुषित भावनाओं के कारण वह कुछ और ही दान देना चाहता था ।
उसी नगर में भूतिशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह खोटे शास्त्र बनाकर राजा को प्रसन्न किया करता था। उसके मरने पर उसका पुत्र मुण्डशालायन भी यही काम करता रहा । वह भी उस समय राज्य सभा में -बैठा हुआ था । वह बोला- 'महाराज ! ये सब दान तो साधुभ्रों और दरिद्रों के लिये हैं । किन्तु महत्वाकांक्षी राजाओं के लिये तो शाप और मनुग्रह करने की शक्ति से सम्पन्न ब्राह्मणों के लिये सुवर्ण, भूमि आदि का दान अनन्त