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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
के सभी सुखों का अनुभव किया। भगवान तो असीम पुण्य के स्वामी थे ही, किन्तु जो स्त्रियों भगवान को सुख देती थीं, वे भी असाधारण पुण्याधिकारिणी थीं ।
एक दिन भगवान बैठे हुए प्रकृति के सौन्दर्य का रस पान कर रहे थे, तभी अकस्मात् उल्कापात हुआ | संसार में रहकर भी जो संसार से पृथक् थे, उनके लिए यह साधारण लगने वाली घटना ही प्रेरक सिद्ध हुई । बे उल्कापात देखकर विचारमग्न हो गये। वे विचार करने लगे- यह उल्का नहीं है, अपितु मेरे श्रनादिकाल के महा मोह रूपी अन्धकार को दूर करने वाली दीपिका है। इससे उन्हें बोधि प्राप्त हुई और उन्हें यह दृढ़ भ्रात्म प्रतीति हुई- मेरा आत्मा ही मेरा है, यह राज्य, स्त्री- पुत्र आदि सभी पर हैं, कर्मकृत संयोग मात्र हैं । अब मुझे श्रात्मा के लिये ही निज का पुरुषार्थ जगाना है ।
तभी लोकान्तिक देवों ने व्याकर भगवान की पूजा की और उनके विचारों को सराहना की। भगवान भी अपने पुत्र सुमति का राज्याभिषेक करके सूर्यप्रभा पालकी में बैठकर नगर के बाहर उद्यान में पहुंचे। वहाँ बेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया । इन्द्रों और देवों ने भगवान का दीक्षा कल्याणक मनाया ।
दूसरे दिन वे आहार के लिये शैलपुर नगर में पहुॅचे। वहाँ पुष्पमित्र राजा ने उन्हें आहार देकर सीम पुण्य का उपार्जन किया । देवों ने वहां पंचाश्चर्य किये।
केवल ज्ञान कल्याणक - भगवान निरन्तर तपस्या करते रहे। उन्हें इस प्रकार तपस्या करते हुए चार वर्ष व्यतीत हो गये । तब वे कार्तिक शुक्ला द्वितीया के दिन सायंकाल के समय मूल नक्षत्र में दो दिन का उपवास को लेकर नाग वृक्ष के नीचे बैठ गये और उसी दीक्षा वन में घातिया कर्मों को निर्मूल करके प्रनन्त चतुष्टय प्राप्त किया।
इन्द्रों ने आकर भगवान के केवलज्ञान की पूजा की और समवसरण की रचना की। उस दिन सर्व पदार्थों का निरूपण करने वाली भगवान की दिव्य ध्वनि प्रगट हुई।
भगवान का संघ - - भगवान पुष्पदन्त के सात ऋद्धियों के धारक विधर्म आदि अठासी गणधर थे । १५०० श्रुतकेवली १५५५०० शिक्षक, ८४०० अवधिज्ञानी, ७००० केवलज्ञानी, १३००० विक्रिया ऋद्धि के धारक, ७५०० मन:पर्ययज्ञानी और ६६०० वादी मुनि थे। इस प्रकार कुल मुनियों की संख्या २००००० थी। इनके अतिरिक्त घोषार्या मादि ३५०००० श्रार्यिकार्ये, २००००० श्रावक और ५००००० श्राविकायें थीं ।
निर्वाण कल्याणक – भगवान ने समस्त भार्य देशों में बिहार करके सद्धर्म का उपदेश दिया, जिससे असंख्य प्राणियों ने मात्म-हित किया । धन्त में वे सम्मेदशिखर पहुँचे और योग निरोध करके भाद्रपद शुक्ला अष्टमी के दिन मूल नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हो गये । देव और इन्द्र माये भौर उनका निर्वाण कल्याणक मनाकर अपने-अपने स्थान को चले गये ।
पर नाम - भगवान पुष्पदन्त का दूसरा नाम सुविधिनाथ भी है ।
यक्ष-यक्षिणी - भगवान पुष्पदन्त के सेवक यक्ष का नाम प्रजित यक्ष और सेविका यक्षिणी का नाम महाकाली था ।
इन्हीं के समय में रुद्र नामक तीसरा रुद्र हुआ ।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में खुखन्दू नामक एक कस्वा है । यह सड़क मार्ग से देवरिया - सलेमपुर सड़क से एक मील है । मार्ग कच्चा है । पश्चिम से आने वालों को देवरिया और पूर्व से आने वालों को सलेमपुर उतरना चाहिए। दोनों ही स्थानों से यह १४-१४ कि० मी० है । यहाँ पुराने भवनों के पड़े हैं । यहाँ प्राचीन तालाब हैं मोर तीस टीले काकन्दी का नाम बदलते बदलते किष्किन्धापुर
काकम्दी
भग्नावशेष लगभग एक मील में बिखरे हैं। यहीं पर प्राचीन काल में काकन्दी थी।
और फिर खुखन्दू हो गया ।
इस नगर में पुष्पदन्त भगवान का जन्म हुआ था 1