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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास मस्सी हजार अजिकायें थीं। तीन लाख श्रावक और पांच लाख श्रविकायें थीं।
भगवान चन्द्रप्रभ समस्त देशों में बिहार करते हुए सम्मेद शिखर पर पहुंचे और वहाँ एक हजार मुनियों के साथ एक माह तक प्रतिमा योग धारण करके पारूढ़ हो गये। अन्त में फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र
मोक्ष कल्याणक में सायंकाल के समय योग-निरोध कर समस्त अधातिया कर्मों का नाश करके परम पद निर्वाण को प्राप्त हुए। उसी समय देयों ने प्राकर भगवान का निर्वाण कल्याणक मनाया।
यक्ष-यक्षिणी-भगवान चन्द्रप्रभ के सेवक विजय यक्ष और ज्वालामालिनी यक्षिणी थे।
भगवान चन्द्रप्रभ की जन्मनगरी चन्द्रपुरी है जो वाराणसी से भागे कादीपुर स्टेशन से ५ किलोमीटर दूर गंगा के तट पर अवस्थित है। टैक्सी और मोटर के द्वारा वाराणसी से गोरखपुर रोड पर २४ किलोमीटर है । मुख्य
चन्द्रपुरी सड़क से २ किलोमीटर कच्चा मार्ग है। यह सिंहपुरी (सारनाथ) से १७ किलोमीटर है। इस गांव का वर्तमान नाम चन्द्रावती है।
यहां दिगम्बर जनों का जो प्राचीन मन्दिर था, उस पर श्वेताम्बरों ने अधिकार कर लिया था। तब पारा निवासी लाला प्रभदास ने गंगा के किनारे सन१९१३ में नवीन मन्दिर का निर्माण कराया तथा मूर्तियों की पंच कल्याणक प्रतिष्ठा वा. देवकूमार जी ने कराई। मन्दिर में भगवान चन्द्रप्रभ की श्वेत वर्ण १४ इंच प्रवगाहना वाली प्रतिमा विराजमान है। इसके मागे पार्श्वनाथ की श्याम वर्ण प्रतिमा विराजमान है। मन्दिर दूसरी मंजिल पर है। मन्दिर के चारों मोर धर्मशाला बनी हुई है।
यहाँ चैत्र कृष्णा पंचमी को वार्षिक मेला भरता है ।