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भगवान चन्द्रप्रभ
कर विमुग्ध भाव से उन्हें निहारता रहा । उनके उत्पन्न होते ही कुवलय समूह विकसित हो गया था। अतः इन्द्र ने उनका नाम 'चन्द्रप्रभ रक्खा। फिर इन्द्र ने भगवान के समक्ष प्रानन्द नामक भक्तिपूर्ण नाटक और नत्य किया। फिर लाकर उन्हें माता-पिता को सौंपकर कुबेर को प्राज्ञा दी-तुम भोगोपभोग की योग्य वस्तयों के द्वारा भगवान की सेवा करो' और फिर वह देवों के साथ स्वर्ग को चला गया । भगवान का लांछन चन्द्रमा है।
भगवान ज्यों-ज्यों चढ़ने लगे, उनका रूप, कान्ति, लावण्य सभी कुछ बढ़ने लगे, वे प्रियदर्शन थे। लोग उनके दर्शनों के लिए व्याकुल रहते थे और दर्शन मिलने पर उन्हें अपूर्व तृप्ति अनुभव होती थी।
मा र अवस्था बीतने पर उनके पिता ने राज्याभिषेक कर दिया । उनकी स्त्रियाँ उनकी याज्ञानुवर्ती थीं, समस्त राजा उनके वशवर्ती थे और मृत्यगण, पुरजन और परिजन उनके संकतानुवर्ती थे।
साम्राज्य-सम्पदा का भोग जब उन्हें काफी समय हो गया, तब एक दिन वे अपने श्रृंगार-कोष्ठक में दर्पण में अपना मुख देख रहे थे। उन्हें अन्तःस्फुरणा हुई—एक दिन था जब यह मुख मधुर कान्ति से उमगता था ।
वे कौमार्य के दिन थे। उन दिनों कितना भोलापन था इसके ऊपर । कौमार्य बीता, किशोराभगवान को स्वयं वस्था पाई, कान्ति और प्रोज फटे पड़ते थे। गौवन आया तो संसार के भोगों की ओर स्फूर्त प्रेरणा पाकर्षण संग में लाया । अब प्रायु निरन्तर छीजती जा रहो है। आयु का चतुर्थ पाद आ गया है,
तीन पाद बीत चुके हैं। आयु का इतना लम्बा काल मैंने केवल सांसारिकता में हो खो दिथे। अपना हित नहीं किया । अब तक मैंने संसार का सम्पदा का मोम किना, किन्तु अदनुभो सामिक सम्पदा का भोग करना है। संसार का यह रूप, यह सम्पदा क्षणिक है, अस्थिर है। किन्तु प्रात्मा का रूप अलौकिक है, प्रात्मा की संपदा अनन्त अक्षय है। मैं अब इसी का पुरुषार्थ जगाऊँगा।
इस प्रकार जब चन्द्रप्रभ अपने ग्रात्मा को जागत कर रहे थे, तभी लौकान्तिक देव आये और भगवान की स्तुति करते हए उनके विचारों की सराहना की। भगवान अपने पुत्र वरचन्द्र को राज्य-भार सौंप कर देवों द्वारा
लाई हुई विमला नामक पालकी में नगर के बाहर सर्वतुक बन में पधारे । वहाँ उन्होंने दो दिन बौक्षा कल्याणक के उपवास का नियम लेकर पौष कृष्णा एकादशी के दिन अनुराधा नक्षत्र में एक हजार राजामों
के साथ जैमेन्द्री दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्थयज्ञान उत्पन्न हो गया। दो दिन बाद वे नलिन नामक नगर में प्राहार के निमित्त पधारे। बहो सोमदत्त राजा ने उन्हें नवधा भक्तिपूर्वक पाहार-दान दिया। इससे प्रभावित होकर देवों ने रत्नवष्टि प्रादि पंचाश्चर्य किये ।।
भगवान मुनिजनोचित पंच महावत, पंच समिति, पंचेन्द्रिय निग्रह, दशधर्म आदि में सावधान रहते हुए कर्म शत्रुओं से युद्ध करने में संलग्न रहने लगे। उन्हें चातिया कर्मों को निर्मूल करने में तीन माह लग गये । अन्त में दीक्षा
बन में नाग वृक्ष के नीचे वेला का नियम लेकर प्रभु ध्यानलीन हो गये और फाल्गुन कृष्णा केवलज्ञान कल्याणक सप्तमी को सायंकाल अनुराधा नक्षत्र में वे अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण
रूप तीन परिणामों के संयोग से क्षपक श्रेणी पर प्रारोहण करके प्रथम शुक्ल ध्यान के बल से मोहनीय कर्म का नाश करने में सफल हो गये। फिर बारहवें गुणस्थान के अन्त में द्वितीय शुक्ल ध्यान के प्रभाव से शेष तीन घातिया कर्मों का भी क्षय कर दिया। जीव के उपयोग गुण का घात करने वाले घातिया कर्मों का नाश होते ही वे सयोग केवली हो गये। उनकी प्रात्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से सम्पन्न हो गई। उन्हें परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन, यथाख्यात चारित्र, क्षायिक ज्ञान आदि पांच लब्धियों की उपलब्धि हो गई। अब वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन गए 1
इन्द्रों और देवों ने आकर भगवान के केवलज्ञान की पूजा की। उन्होंने समवसरण की रचना की और उसमें भगवान की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी। भगवान के धर्म-चक्र का प्रवर्तन हुआ।
उनके दत्त प्रादि तिरानवे गणधर थे। दो हजार पूर्वधारी थे। आठ हजार अवधिज्ञानी, दो लाख चार सौ शिक्षक, दस हजार केवलज्ञानी, चौदह हजार विक्रिया ऋद्धिधारी, आठ हजार मनःपर्ययज्ञानी और चार हजार भगवान का परिवार छह सौ वादी थे। इस प्रकार सब मुनियों की संख्या ढाई लाख थी। वरुणा ग्रादि तीन लाख