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भगवान सुपार्वनाथ
कुछ विद्वानों का प्रभिमत हैं कि स्वामी समन्तभद्र भस्मक व्याधि के काल में यहाँ के शिवालय में रहे थे और जब उनके छदम रूप का रहस्य फट गया, तब राजा के द्वारा वाध्य किये जाने पर उन्होंने शिवपिण्डी के समक्ष जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा की कल्पना करके स्वयम्भू स्तोत्र का पाठ करना प्रारम्भ किया और जब वे चन्द्रप्रभ
तुति करने लगे, तभी शिवपिण्डी फटकर उसके बीच में से भगवान चन्द्रप्रभ को दिव्य मूति प्रगट हुई। उन्होंने उसे नमस्कार किया। इस घटना की सत्यता बताने वाला फटे महादेव का मन्दिर अब तक विद्यमान है। कुछ वर्ष पूर्व तक इस मन्दिर का नाम समन्तभद्रेश्वर मंदिर था। यह पहले बहुत बड़ा मंदिर था। किन्तु जब यहाँ से सड़क निकली, तब सड़क मार्ग में बाधक इसका बहुत सा भाग गिरा दिया गया था।
इस प्रकार यहाँ अनेक महत्पूर्ण स्नाय नजित हुई हैं। भगवान सुपार्श्वनाथ के माग चिन्ह का प्रभाव यहाँ व्यापक रूप से पड़ा और जनता नाग-पूजा करने लगी।
यहाँ यक्ष-पूजा का भी बहुत प्रचलन रहा है । लगता है, इन दोनों पूजामों का सम्बन्ध काशी में माग पूजा सुपार्श्वनाथ से था।
पुरातत्व-यहाँ राजधाद से उत्खनन में महत्त्वपूर्ण पुरातत्व सामग्री मिली है, जिसमें कुषाण और गुप्त युग की अनेक जैन मूर्तियां भी हैं जो यहाँ के भारत कला भवन में सुरक्षित हैं।