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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
या प्राचार्य ने इस प्रकार करने का कोई कारण तो नहीं दिया। संभव है, इन्द्र ने जो छत्र लगाया था, उसका प्राकार सर्प-फण-मण्डल जैसा रहा हो।
इस सम्बन्ध में हमारी विनम्र मान्यता है कि सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ दोनों ही वाराणसी में उत्पन्न हुए थे । पार्श्वनाथ का प्रभाव अपने काल में पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में अत्यधिक था। यही कारण है कि उनको मूर्तियां अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा अधिक मिलती हैं । उनके इस प्रभाव के कारण और दोनों का नाम प्रायः समान होने के कारण पाश्र्वनाथ-मूर्तियों की अनुकृति पर सुपार्षनाथ की भी मूर्तियाँ बनने लगीं पोर उनके ऊपर भी सर्पफण बनाये जाने लगे । इसके सिवाय दूसरा कोई युक्तियुक्त उत्तर बन नहीं सकता।
भगवान सुपार्श्वनाथ की लोक-प्रसिद्धि के कारण स्वस्तिक का मंगल चिन्ह भी लोकविश्रुत हो गया। अतः स्वस्तिक का लोक-प्रचलन इतिहासातीत काल से रहा है । मोहन जो दड़ो, लायल, रोपड़ आदि के प्राचीनतम
पुरातत्त्व में कई मुद्रामों में स्वस्तिक अंफित पाया गया है। एक मुद्रा मोहन जोदड़ो में ऐसी स्वस्तिक भी उपलब्ध हुई है, जिसमें स्वस्तिक अंकित है और उसके प्रागे एक हाथी नतमस्तक खडा
है । भारतीय पुरातत्त्ववेत्ता प्रभी तक इस प्रतीक का रहस्योद्घाटन करने में प्रसमर्थ रहे हैं। फिन्तु जैन प्रतीक-योजना के छात्र को इसके समाधान में कुछ भी कठिनाई नहीं होगी : प्रतीकात्मक रूप से स्वस्तिक सुपार्श्वनाथ का चिन्ह है और हामी उनके पक्ष मातंग' के वाहन का द्योतक है । सुपार्श्वनाथ की द्योतक एक मुद्रा और मिली है। एक दिगम्बर योगो पदमासन मुद्रा में विराजमान है। उसके दोनों ओर दो सर्प बने हए हैं और दो व्यक्ति भक्ति में वीणा-वादन कर रहे हैं । निश्चय ही यह योगी सुपार्श्वनाथ हैं पोर सर्प उनके चिन्ह हैं।
खण्डगिरि-उदयगिरि की रानी गुफा का निद है। मह गुफा ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी की है। एक गुफा में सर्प का चिन्ह अंकित है। मथुरा के कंकाली टोला से प्राप्त कुषाणकालीन आयागपट्ट में भी स्वस्तिक या नन्द्यावर्त बना हुआ है.। कौशाम्बी, राजगृह, श्रावस्ती आदि में ऐसे शिलापट्ट मिले हैं, जिन पर स्वस्तिक और सर्प बने हुए हैं । जैन मन्दिरों में सर्वत्र स्वस्तिक मंगल चिन्ह के रूप में सदा से प्रयुक्त होता भाया है । जनों को पूजा-विधि में स्वस्तिक एक प्रावधयक अंग है। विधान, प्रतिष्ठा, मंगल कार्यो प्रादि में स्वस्तिक की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया है।
स्वस्तिक में बड़ा रहस्य निहित है। यह चतुर्गति रूप संसार का द्योतक है । इसके ऊपर तीन विन्दु रत्नत्रय के और अर्धचन्द्र रत्नत्रय द्वारा प्राप्त मुक्ति (सिसिला) का प्रतीक है।
___धीर धीरे स्वस्तिक की ख्याति से प्रभावित होकर संसार की सभी सभ्यताओं और अधिकांश धर्मों ने इसे अपना लिया । काशी देश में वाराणसी नगरी थी। काशी जनपद की यह राजधानी थी। यहाँ के वर्तमान भदैनी घाट
को भगवान सुपार्श्वनाथ का जन्म-स्थान माना जाता है। स्यावाद विद्यालय के ऊपर वाराणसी मन्दिर बना हुआ है। कहते हैं, भगवान का जन्म-कल्याणक यहीं हुया था । कुछ लोग मानते
हैं कि छेदीलाल जी का जैन मन्दिर-जो इस मन्दिर के निकट है-भगवान का वास्तविक जन्म स्थान है । यहाँ भगवान के प्राचीन चरण-चिन्ह भी हैं।
__ काशी में अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनायें हुई हैं। कर्म युग के प्रारम्भ में महाराज अकंपन यहाँ के राजा थे। उन्होंने अपनी पुत्री सुलोचना का स्वयंवर यहीं किया था। यह कर्मभूमि का प्रथम स्वयंवर था।
भगवान पार्श्वनाथ का जन्म यहीं हुया था और उन्होंने यहीं पर कमठ तपस्वी के अविवेकपूर्ण तप को निस्सारता बताते हुए जलते हुए सर्प-युगल को णमोकार मंत्र सुनाया था, जिसके प्रभाव से वे नागकुमार जाति के इन्द्र-इन्द्राणी धरणेन्द्र और पद्मावती बने थे और यहीं भगवान पार्श्वनाथ का उपदेश सुनकर प्रश्वसेन और वामा देवी ने दीक्षा ली थी।
१. मेहविजय गणिकृत चतुर्विशति बिन स्तुति