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भगवान पद्मप्रभ
१२५ सराहना की तथा निवेदन किया-प्रभो ! संसार के प्राणी अज्ञान और मोह में भटक रहे हैं । अब प्रापको तीर्थप्रवृत्ति का समय आ पहुंचा है। पाप उन जीवों को मार्ग दिखलाइये।
भगवान निवृत्ति नामक पालकी में पारूढ़ होकर पभीसा गिरि के मनोहर वन में पहुंचे और वहाँ वेला का नियम लेकर कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को सन्ध्या समय चित्रा नक्षत्र में दीक्षा ले लो। उनके साथ में एक हजार राजामों ने भी मुनि-दीक्षा ले ली। भगवान को संयम ग्रहण करते ही मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया।
दूसरे दिन भगवान वर्धमान नगर में चर्या के लिये पहुंचे। वहाँ राजा सोमदत्त ने उन्हें प्राहार-दान देकर अक्षय पुण्य उपाजित किया। देवों ने भगवान के माहार-दान के उपलक्ष्य में पंचाश्चर्य किये।
भगवान छह माह तक मौन धारण करके विविध प्रकार के तप करते रहे।
केबलशान कल्याणक-उन्होंने चैत्र शुक्ला पूर्णमासी के दिन अपराह में चित्रा नक्षत्र में शिरीष वक्ष के नीचे चार पातिया कर्मों का क्षय कर दिया। तभी उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। इन्द्रों और देवों ने आकर भगवान की पूजा की। कुबेर ने समवसरण की रचना की। भगवान ने पभोसा गिरि पर प्रथम उपदेश देकर तीर्थप्रवर्तन किया।
उनके संघ में बचचामर मादि ११० गणधर थे । इनके अतिरिक्त २३०० पूर्वधारी, २६६००० शिक्षक, भगवामका संघ १००००पवधिशानी, १२००० केवलज्ञानी, १६८०० विक्रिया ऋविषारी, १०३०० मनःपर्यय शानी, तया ६६०० श्रेष्ठ वादी थे । इस प्रकार कुल ३२०००० मुनि उनके संघ में थे। मुनियों के अतिरिक्त रात्रिषेणा आदि ४२०००० अनिकायें यों। उनके श्रावकों की संख्या ३००००० तथा श्राविकामों की संख्या ५००००० थी।
भगवान बहुत समय तक बिहार करके जीवों को सन्मार्ग का उपदेश देकर उन्हें सन्मार्ग में लगाते रहे। जब निर्वाण कल्याणक पायु में एक माह शेष रह गया, तब भगवान सम्मेद शिखर पहुंचे और उन्होंने योग-निरोष कर प्रतिमा योग धारण कर लिया । अन्त में फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी की संध्या को चित्रा नक्षत्र में जन्म-मरण की परम्परा सर्वदा के लिए ना कर द गोरे संगा से गुल हो गये। उनके साथ एक हजार मुनि भी मुक्ति पधारे। देवों और इन्द्रों ने पाकर निर्वाण महोत्सव मनाया।
यक्ष-यक्षिणी-भगवान पद्मप्रभ के यक्ष का नाम कुसुम और यक्षिणी का नाम मनोवेगा है।
कौशाम्बी नगरी का वर्तमान नाम कोसम है। कोसम नामक दो गांव पास पास हैं-कोसम इनाम और कौशाम्बी कोसम खिराज । इस गांव का एकमाम कौशाम्बी गढ़ भी है। यहाँ एक पुराना किला यमुना के तट पर बना हुआ है जो प्रायः धराशायी होकर खण्डहर बन चुका है। किन्तु कहीं-कहीं पर अभी तक दीवाले मौर बुर्ज बने हुए हैं । इसके अवशेष लगभग चार मील में बिखरे हुए हैं।
कोसम इलाहाबाद से लगभग इकत्तीस मील दूर है। इलाहाबाद से यहाँ के लिए प्रकिलसराय होती हुई बस जाती हैं। बस कोसम के रेस्ट हाउस तक जाती हैं। वहाँ से मन्दिर कच्चे मार्ग से लगभग डेढ़ मोल है। रेस्ट हाउस के पास एक प्राचीन कुना है जिसका सम्बन्ध अर्जुन के पौत्र परीक्षित और प्रसिद्ध वैद्य धन्वन्तरि से जोड़ा जाता है ।
___ कोशाम्बी का मन्दिर छोटा ही है। इसमें दो गभंगह हैं, जिनमें दो सर्वतोभद्रिका प्रतिमायें तथा भगवान पद्मप्रभु के चरण चिन्ह विराजमान हैं। मन्दिर के बाहर धर्मशाला बनी हई है। मन्दिर के चारों ओर प्राचीन नगर के अवशेष बिखरे पड़े हैं। मन्दिर के पीछे एक पाषाण-स्तम्भ है, जिसे प्रशोक निर्मित कहा जाता है।
यहाँ प्रयाग विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग की मोर से कई वर्ष तक खुदाई हुई थी, जिसमें बहुमूल्य पुरातत्व सामग्री मिली है। चार प्रणण्डित जैन मूर्तियां भी मिली हैं। यहाँ मुपमूर्तियां पौर मनके बहुत बड़ी संख्या में मिले हैं। यह सब सामग्री प्रयाग संग्रहालय में सुरक्षित है । खुदाई के फलस्वरूप प्रजीवक सम्प्रदाय का बिहार भी निकला है । कहा जाता है, इसमें गोपालक के अनुयायी पांच हजार साधु रहते थे।
कौशाम्बी भारत की प्राचीन नगरियों में मानी जाती है तथा यह वत्स देश की राजधानी थी। यहाँ अनेक 'पौराणिक और ऐतिहासिक घटनायें हुई है। भगवान नेमिनाथ ने जब जरत्कुमार के हापों से नारायण कृष्ण की मृत्यु पौर वैपायन ऋषि के शाप से द्वारका के भस्म होने की भविष्यवाणी की तो दुनिवार भवितव्य को टालने के लिये