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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
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जरत्कुमार और द्वैपायन ऋषि दोनों ही द्वारका से दूर चले गये। एक बार बलभद्र बलराम और नारायण कृष्ण भ्रमण करते हुए इसी वन में आये । यहाँ श्राकर नारायण को प्यास लगी। बलभद्र जल की तलाश में दूर चले गये, नारायण को नींद आ गई और एक वृक्ष के नीचे सो गये। भील का वेष बनाये हुए जरत्कुमार घूमते हुए उधर ही ग्रा निकला। उसने नारायण के चमकते हुए अंगूठे को दूर से हिरण को आंख समझा । उसने उसको लक्ष्य करके दाण संधान किया। गण नारायण के लग जिससे उनकी मृत्यु हो गई। जब बलभद्र जल लेकर वहाँ आये तो उन्हें अपने प्रिय मनुज की यह दशा देखकर भारी सन्ताप हुआ। वे प्रेम में इतने अधीर हो गये कि वे छह माह तक मृत शरीर को कन्धे से लगाये शोक संतप्त होकर घूमते रहे । ग्रन्त में मागीतुंगी पर जाकर देव द्वारा समझाने पर उस देह का संस्कार किया और वहीं दीक्षा लेकर तप करने लगे ।
भगवान महावीर के काल में वैशाली गणतन्त्र के अधिपति चेटक की छोटी पुत्री चन्दनवाला अपहृत होकर यहाँ बिकने आई और वात्सल्यवश एक धर्मात्मा सेठ ने उसे खरीद लिया। अब सेठ व्यापार के कार्य से बाहर गये हुए थे, तब सेठानी ने सापल्य के झूठे संदेह में पड़कर चन्दना को जंजीरों से बांध दिया, उसके बाल काट दिये और खाने को सूप में वाकले दे दिये। तभी भगवान महावीर प्रहार के निमित्त उधर पधारे और चन्दना ने भक्तिवश वे ही वाकले भगवान को बाहार में दिये । तीर्थंकर के पुण्य प्रभाव से चन्दना के बन्धन कट गये । देवताओं ने रत्न - वर्षा की। भगवान बाहार लेकर चले गये । कुछ समय पश्चात् चन्दना ने भगवान महावीर के पास दीक्षा ले ली और उनके प्रायिका संघ की मुख्य गणिनी बनी ।
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इसी काल में कौशाम्बी पर उदयन शासन कर रहा था, जो अर्जुन की अठारहवीं पीढ़ी में कहलाता है । उदयन के कई विवाह हुए। उज्जयिनी नरेश चण्डप्रद्योत की पुत्री बासवदला के साथ उसका प्रेम विवाह हुआा, जिसको लेकर संस्कृत भाषा में अनेक काव्यों की रचना हुई है। उदयन जितना वीर था, उतना कला-मर्मज्ञ भी था । वह अपनी मंजुघोषा वीणा पर जब उंगली चलाता था 'उसकी ध्वनि पर पशु-पक्षी तक खिंचे चले धाते थे । वह महावीर भगवान का भक्त था और अन्त में जैन विधि से उसने सन्यास मरण किया ।
उसके काल में कौशाम्बी धन धान्य से प्रत्यन्त समृद्ध था और व्यापारिक केन्द्र था। जल और स्थल मार्गों द्वारा इसका व्यापार सुदूर देशों से होता था । इतिहासकार इस काल की कौशाम्बी को भारत का मांचेस्टर कहते हैं ।
काल ने इस समृद्ध नगरी को एक दिन खण्डहर बना दिया ।
भौसा का दूसरा नाम प्रभासगिरि भी था । प्राचीन काल में यह कौशाम्बी नगरी का वन था । इसी में
भौसा
प्राचीन काल में यह जैन धर्म का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। यहां प्राचीन जैन मन्दिर पहाड़ी के ऊपर था । कहते हैं, उसके सामने एक मान स्तम्भ भी था। वहीं भट्टारक ललितकीर्ति की गद्दी थी। पहाड़ी की तलहटी में कई दिगम्बर जैन मन्दिर थे। कहते हैं, संवत् १८२५ में बिजली गिर जाने से मन्दिर आदि को काफी क्षति हुई थी। फिर भट्टारक वाले स्थान पर संवत् १८८१ में पंच कल्याणक प्रतिष्ठापूर्वक पद्मप्रभ की प्रतिमा विराजमान की गई। इस सम्बन्ध में जो शिलालेख मिलता है, उसका प्राशय निम्न प्रकार है
भगवान पद्मप्रभु ने दीक्षा ली थी और इसी वन में उन्हें केवल ज्ञान हुआ था। यह जमुना
के किनारे अवस्थित है। यह एक छोटी सी पहाड़ी है। यह कौशाम्बी से जमुना के रास्ते छह मील दूर है। यहां जाने के लिये कोसम से नाव मिलती हैं ।
'संवत् १८८१ मिती मार्गशीर्ष शुक्ला भ्रष्टमी शुक्रवार को भट्टारक श्री जगतकीति उनके पट्टधर भट्टारक श्री ललितकीति जी उनके ग्राम्नाय में गोयल गोत्री प्रयाग नगरवासी साधु श्री रावजीमल के लघुभ्राता फेरुमल उनके पुत्र साधु श्री माणिकचन्द्र उनके पुत्र साधु श्री हीरामल ने कौशाम्बी नगर के बाहर प्रभास पर्वत पर जो पद्मप्रभ भगवान का दीक्षा कल्याणक क्षेत्र है, जिन विम्ब प्रतिष्ठा कराई - अंग्रेज बहादुर के राज्य में ।
किन्तु इसके बाद फिर यहाँ एक भयानक दुर्घटना होगई । वीर संवत् २४५७ भाद्रपद कृष्णा ६ को रात्रि में इस मन्दिर पर पहाड़ के सीन वजनी टुकड़े गिर पड़े। इससे मन्दिर और मानस्तम्भ दोनों नष्ट हो गये मौर जो