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भगवान पद्मप्रम
१७ भवन यहाँ पर थे, वे भी नष्ट हो गये । किन्तु इसे एक चमत्कार ही कहना चाहिए कि प्रतिमायें सुरक्षित रहीं।
सब पहाड़ पर एक कमरे में प्रतिमा विराजमान हैं तथा पहाड़ की तलहटी में एक कम्पाउण्ड के भीतर धर्मशाला (जीर्ण शीर्ण दशा में) तथा कुभा है । धर्मशाला के ऊपर एक छोटा मन्दिर है, जिसमें प्राचीन प्रतिमायें हैं। धर्मशाला के एक कमरे में इधर उधर खेतों प्रादि में मिली कुछ प्राचीन खण्डित अखण्डित प्रतिमायें रक्खो हुई हैं।
पहाड़ के ऊपर-मन्दिर से काफी ऊंचाई पर, एक शिला में चार खड्गासन प्रतिमायें उकेरी हुई हैं जो सिद्धप्रतिमा कही जाती हैं। दाईं ओर ऊपर को देखने पर एक गुफा दिखाई पड़ती है। प्राचीन काल में यह गुफा दिगम्बर जैन साधुनों के ध्यान और तपस्या के काम में आती थी। इस गुफा में शिलालेख भी उपलब्ध हए हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ पायागपट्ट भी मिला था जो अभिलिखित है। मभिलेख के अनुसार राजा शिवमित्र के १२ वें संवत में शिवनन्दिकी स्त्री शिष्या स्थविरा बलदासा के कहने से शिवपालित ने अर्हन्तों की पूजा के लिए यह पायागपट' स्थापित किया।
गफा के बाहर जो लेख पढ़ा गया है, उसका प्राशय यह है
'काश्यपी अन्तिों के संवत्सर १० में प्राषाढ़सेन ने यह गुफा बनवाई, यह गोपाली पौर वहिदरी का पुत्र था व गोपाली के पुत्र बहसतिमित्र राजा का मामा था। यह काश्यप गोत्र महावीर स्वामी का था।
गुफा के भीतर भी एक मंभिलेख है, जिसका भाष इस प्रकार है
'अहिच्छत्रा के राजा शौनकायन के पुत्र बंगपाल, उसकी रानी त्रिवेणी, उसके पुत्र भागवत, उसकी स्त्री वैहिदरी, उसके पुत्र प्राषाढ़सेन ने बनवाई।
उपर्युक्त प्राषाढ़ सेन ई० सन के प्रारम्भ में उत्तर पांचाल का राजा था। उक्त लेख में प्राषाढ़ सेन को वहसतिमित्र (वृहस्पतिमित्र) का मामा बतलाया है।
यहाँ शुग काल में स्थापत्य और मूर्तिकला की बड़ी उन्नति हुई थी। जिन शुगकालीन शासकों के सिक्के इस प्रदेश में मिले हैं, उनके नाम पग्निमित्र, भानुमिन, भद्रपोष, जेठमित्र, भूमिमित्र प्रादि हैं।
शुगों के बाद यहां नववंशीय स्थानीय शासकों का प्रधिकार रहा। इन राजामों के लेख पौर सिक्के यहाँ बड़ी संख्या में उपलब्ध हुए हैं।
शुगवश की प्रधान शाखा का अन्त ई० पू० १०० के लगभग हो गया । किन्तु उसकी अन्य कई शाखाये शासन करती रहीं। उनके केन्द्र थे अहिच्छत्रा, विदिशा, मथुरा, अयोध्या और पभौसा।
मथुरा में अनेक मित्रवंशीय राजाओं के सिक्के मिले हैं, जैसे गोमित्र, ब्रह्ममित्र, दढ़ मित्र, सूर्यमित्र, विष्णुमित्र ।
१. सिद्धम राजो शिव मित्रस्य संवच्छरे १०-२ सम
थाविरस बलदास सनिवर्ततन साए शिवनददिस अंतेवासिस शिवपालिसन प्रायागपट्ठो थापयति अरहत पूजाये