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भगवान अभिनन्दननाथ
अयोध्या नगरी में पधारे। वहाँ इन्द्रदलने आहार दान देकर पुण्योपार्जन किया। देवों ने पंचाश्चर्य किये। भगवान ने प्रठारह वर्ष तक मौन रहकर विभिन्न स्थानों में बिहार किया। वे नाना प्रकार के तप करते रहे। एक दिन भगवान दीक्षा-वन में अचन वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यानाद हो गये। तभी पौष शुक्ला चतुर्दशी के दिन के मन में उन्हें शान प्राप्त हो गया। तभी देवों केवलज्ञान कल्याणक और इन्द्रों ने माकर उनकी पूजा की समवसरण की रचना हुई। उसमें गन्धकुटी में बैठकर भगवान की दिव्य देशना प्रगट हुई ।
भगवान का परिकर भगवान के परिकर में बच्चनाभि आदि १०३ गणधर थे। २५०० पूर्वधारी, २३००५० शिक्षक ६८०० श्रवविज्ञानी, १६००० केवलज्ञानी, १६००० विक्रियाऋद्धिधारी, ११६५० मनः पर्ययज्ञानी बोर ११००० प्रचण्ड बादी थे। इस प्रकार कुल मुनियों को संख्या तीन लाख थी। इनके अतिरिक्त २३०६०० प्रजिकायें, ३००००० श्रावक और ५००००० श्राविकार्य थीं ।
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दीर्घ काल तक भगवान ने समस्त देशों में विहार करके उपदेश दिया और असंख्य जीवों का कल्याण किया । जब आयु में एक माह शेष रह गया, तब वे सम्मेदशिखर पर पधारे। वे एक माह तक ध्यानारूढ़ रहे । अन्त में उन्होंने वैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन प्रातःकाल के समय पुनर्वसु नक्षत्र अनेक मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त किया । इन्द्रों और देवों ने आकर भगवान के निर्वाण
निर्वाण कल्याणक
कल्याणक की
पूजा की ।
भगवान संभवनाथ का तीर्थ भगवान अभिनन्दननाथ की केवलज्ञान प्राप्ति तक रहा। जब भगवान afroदननाथ की प्रथम दिव्य ध्वनि खिरी, तबसे उनका तीर्थ प्रवृत्त हुआ । तीर्थंकर का धर्म चक्र प्रवर्तन ही तीर्थ प्रवर्तन कहलाता है। ।
पक्ष-यक्षिणी- भगवान के सेवक यक्ष का नाम यक्षेश्वर और यक्षिणी का नाम वयश्रृंखला था।