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पंचम परिच्छेद
भगवान अभिनंदननाथ
जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर मंगलावली नाम का एक देश था। उसमें रत्नसंचय नामक नगर में महाबल नाम का एक राजा था। वह कीर्ति, सरस्वती और लक्ष्मी तीनों का ही स्वामी था ।
एक दिन उसने ग्रात्म-कल्याण की भावना से राजपाट अपने पुत्र धनपाल को सौंपकर विमलवाहन नामक मुनिराज के पास संयम धारण कर लिया। कुछ ही काल में वह ग्यारह अंगों
पूर्व भव
का पाठी हो गया । उसने सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करते हुए उनको अपने जीवन में मूर्त रूप दिया । ग्रतः उसे तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति का बन्ध हो गया । श्रायु के अन्त में उसने समाधिमरण किया और विजय नामक पहले अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुआ ।
अयोध्या नगरी का इक्ष्वाकु वंशी काश्यपगोत्री स्वयंबर नामक एक राजा था। उसकी पटरानी का नाम सिद्धार्था था । भगवान के गर्भावतरण से छह माह पूर्व से देवों ने रत्न वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया । वैशाख शुक्ला ष्ठी को पुनर्वसु नक्षत्र में महारानी को सोलह स्वप्न दिखाई दिए । स्वप्नों के पश्चात् उसने अपने मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा। उसी समय विजय विमान से वह अहमिन्द्र अपनी आयु पूर्ण करके उसके गर्भ में श्राया। पति से स्वप्नों का फल सुनकर महारानी श्रत्यन्त
गर्भावतरण
सन्तुष्ट हुई।
नौ माह पूर्ण होने पर माघ शुक्ला द्वादशी को श्रदिति योग में माता ने पुत्र उत्पन्न किया । इन्द्रों और देवों ने प्राकर सुमेरु पर्वत पर ले जाकर एक हजार भाठ कलशों से उनका अभिषेक किया । इन्द्राणी ने बाल प्रभ का श्रृंगार किया। उनकी भुवनमोहिनी छवि को हजार नेत्र बनाकर सौधर्मेन्द्र देखता रहा और जन्म कल्याणक भक्ति में विह्वल होकर उसने तांडव नृत्य किया। फिर वहाँ से लौटकर देव भगवान को अयोध्या लाये । इन्द्र ने बाल प्रभु को माता-पिता को सौंपकर मानन्द मनाया और बालक का नाम 'अभिनन्दननाथ' रखकर सब देवों के साथ वह स्वर्ग को वापिस चला गया। उनका जन्म लांछन बन्दर था । यौवन प्राप्त होने पर उनका विवाह पिता ने सुन्दर राजकन्याओं के साथ कर दिया और उनका राज्याभिषेक करके मुनि दीक्षा लेखी। महाराज ग्रभिनन्दन नाथ राज्य कार्य करने लगे। एक दिन वे आकाश में मेघों की शोभा देख रहे थे । मेघों में गन्धर्व नगर का श्राकार बना हुआ दीख पड़ा। थोड़ी देर में वह भाकार नष्ट हो गया। मेघ भी विलीन हो गये। प्रकृति की इस चंचलता का प्रभाव भगवान के मन पर पड़ा। वे चिन्तन में डूब गये -संसार के भोगों की यही दशा है। ये शाश्वत नहीं है, क्षणिक हैं। इनमें सुख नहीं, सुख की कल्पना मात्र है। श्रात्मा का सुख ही शाश्वत है, वही वास्तविक है । उसी शाश्वत के लिये प्रयत्न करना है ।
दीक्षा कल्याणक
| मुझे
तभी लौकान्तिक देवों ने आकर भगवान की पूजा की और उनके संकल्प की सराहना की । देवों ने भगवान का निष्क्रमण कल्याणक मनाया। भगवान हस्तचित्रा नामक पालकी में विराजमान होकर नगर के बाहर श्रम उद्यान में पधारे। वहाँ उन्होंने माघ शुक्ल द्वादशी के दिन अपने जन्म नक्षत्र के समय एक हजार राजामों के साथ शाल्मली वक्ष के नीचे जिन-दीक्षा धारण कर ली और ध्यान लगाकर बैठ गये। दूसरे दिन वे पारणा के निमित्त