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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास प्रभु एक दिन अपने प्रासाद को छत पर बैठे हुए थे । सुहावना मौसम था। शीतल पवन बह रहा था। आकाश में मेध आंखमिचौनी करते डोल रहे थे। तभी यकायक मेध न जाने, कहां विलीन होगये। भगवान के
मन में विचार माया-जीजा और अनार, गोग और मार के सपूर्ण पदार्थ इन चंचल निष्क्रमण कल्याणक वादलों के समान क्षणभंगुर हैं। जीवन के अमोल क्षण इन भोगों में ही बीते जा रहे हैं,
अब मुझे प्रात्म-कल्याण करना है और इस जन्म-मरण के पाश को सदा के लिये काटना है। तभी पांचवें स्वर्ग की आठों दिशाओं में रहने वाले लौकान्तिक देव पाये और उन्होंने भगवान के वैराग्य की सराहना की और भगवान की स्तुति करके लौट गये।
भगवान ने अपने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा के लिये देवों द्वारा लाई हुई सिद्धार्थ पालकी में प्रस्थान किया और नगर के वाहर सडेतक वन में शाल्मली वक्ष के नीचे एक हजार राजामों के साथ दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। बे दीक्षा लेकर ध्यानारूढ़ हो गये। दूसरे दिन आहार के लिये वे थावस्ती नगरी में पधारे और सुरेन्द्रदत्त नामक राजा ने उन्हें पड़गाह कर बाहार दिया। भगवान के प्रताप से देवों ने पंचाश्चर्य किये।
केवलज्ञान कल्याणक...भगवान संभवनाथ चौदह वर्ष तक विभिन्न स्थानों पर बिहार करके तप करते रहे । तदनन्तर वे दीक्षा बन में पहुंचे और कार्तिक कृष्णा चतुर्थी के दिन ममशिर नक्षत्र में चार धातिया कर्मों का नाश करके अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हुए, चारों प्रकार के देवों ने आकर भगवान का कैवल्य महोत्सव किया और केवलज्ञान की पूजा की। भगवान की प्रथम दिव्य ध्वनि समवसरण में इसी दिन खिरी ।
भगवान के मुख्य गणधर का नाम चारुषेण था। उनके गणधरों की कुल संख्या १०५ थी। उनके संघ में २१५० पूर्वधारी, १२६३०० उपाध्याय, ६६०० अवधिज्ञानी, १५००० केवल ज्ञानी, १९८०० विक्रिया
अद्विधारी, १२१५० मनःपर्ययज्ञानी, १२००० वादी मुनि थे। इस प्रकार मुनियों की न का परिकर कुल संख्या दो लाख थी, यायिकाय तीन लाख बीस हजार थीं। उनके अनुयायी धावकों
की संख्या तीन लाख तथा श्राविकायें पांच लाख थीं। भगवान ने आर्य देशों में बिहार करके धर्म की देशना दी। अनेक जीवों ने उनका उपदेश सुनकर कल्याण किया।
निर्वाण महोत्सव आयु का जब एक माह अवशिष्ट रह गया, तब भगवान ने एक हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखर पर प्रतिमायोग धारण कर लिया और चैत्र शुक्ला षष्ठी को सम्पूर्ण प्रवशिष्ट अघातिया कर्मों का नाश करके निर्वाण प्राप्त किया । मनुष्यों और देवों ने वहाँ पाकर भगवान का निर्वाण महोत्सव मनाया।
यक्ष यक्षिणी-पापका श्रीमुख यक्ष और प्रज्ञप्ति यक्षिणी थी।
श्रावस्ती-यह उत्तर प्रदेश में बलरामपुर-बहराइच रोड के किनारे है। बलरामपुर से बस, टैक्सी और जीप भी मिलती हैं। अयोध्या से गोंडा होते हुए यह ६८ मील है।
प्राचीन भारत में कोशल जनपद था। कोशल के दक्षिणी भाग की राजधानी अयोध्या थी और उत्तर कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी। महावीर के काल में यहां का राजा प्रसेनजित था। जब महावीर बाईस वर्ष के थे, उस समय यहाँ भयंकर बाढ़ आई । अचिरावती (ताप्ती) के किनारे अनाथपिण्डद सेठ सुदत्त की अठारह करोड मूद्रायें गढ़ी थीं। बाढ़ में वे सब वह गयीं।
'यहाँ जितशत्रु नरेश के पुत्र मृगध्वज ने मुनि-दीक्षा ली और यहीं पर उनका निर्वाण हुआ। (हरिवंश पुराण २८।२६)
सेठ नागदत्त ने स्त्री-चरित्र से खिन्न होकर मुनि-व्रत धारण किये और यहीं से मुक्त हुए। (करकण्डु चरिउ)
इस प्रकार मह सिजक्षेत्र भी है।
यह उस समय व्यापारिक केन्द्र था और बड़ा समृद्ध नगर कहलाता था। इसकी यह समृद्धि १२-१३ वीं शताब्दी तक ही रही। महमुद गजनवी भारत के अनेक नगरों को.लटता और जलाता हा जब गजनी लौट गया