________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
व्यावहारिक सुविधा के लिए कल्प का प्रारम्भिक काल सृष्टि का आदिकाल और उस काल के मनुष्य को सृष्टि का प्रादि मानव कह लेते हैं । वस्तुतः तो न सृष्टि का कोई आदि काल ही होता है और न कोई प्रादि मानव हो होता है।
कल्प के प्रारम्भ में मनुष्य अविकसित था । वह ज्ञान-विज्ञान की विविध शाखाओं से अपरिचित था। उस काल में सामाजिक बोध भी नहीं था। इसलिए बहन-भाई ही पति-पत्नी के रूप में रहने लगते थे। इसे 'युगलिया
काल' कहा जाता है । बे जीवन-निर्वाह के लिए वृक्षों पर निर्भर रहते थे। उनकी जीवन मानव की प्राद्य सम्बन्धी सम्पूर्ण प्रावश्यकताय वृक्षों से ही पूरी होतो थों । उनको इच्छानों की पूति वृक्ष ही संस्कृति करते थे। इसलिए उन वृक्षों को कल्पवृक्ष कहा जाता था। उनकी इच्छायें इस प्रकार
की होती थीं। उन दस प्रकार की इच्छाओं को पूर्ति वृक्षों से होती थी, अत: कल्पवृक्ष र प्रकार होते थे सा पाना ना । उनके नाम इस प्रकार हैं-१. मद्याङ्ग, २. तूर्याङ्ग, ३. विभूषाङ्ग, ४. माल्याङ्ग, ५. ज्योतिरस ६. दीपान, ७. गृहाङ्ग,म. भोजनाङ्ग... पात्राङ्ग,१०, वस्त्राङ्ग। ये सब अपने-अपने नाम के अनुसार ही कार्य करत थे।
मानव का इस संस्कृति को हम वन-संस्कृति कह सकते हैं। इसे भोगयुग भो कहा गया है क्योंकि उस काल का मानव जीवन निर्वाह के लिए कोई कर्म नहीं करता था, उसे कल्प वृक्षों में यथावश्यक सब बस्तुएं मिल जाती थों। उनका यथेच्छ भोग करता था । आधुनिक भाषा में इस युग को हम पूर्व पाषाण युग कह सकते हैं। उस समय गांव, नगर, मकान, जाति, समाज, राज्य ग्रादि कोई व्यवस्था नहीं थी। उनके सामने कोई समस्या भी नहीं थी. अतः युद्ध भी नहीं होते थे । मानव और पशु सब साथ रहते थे। दोनों को किसी से या परस्पर भय नहीं था।
प्रकृति में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। वे तत्क्षण अांखों की पकड़ में न प्रापाव, किन्तु कुछ समय पश्चात् उनका फल अनुभव हुए बिना नहीं रहता । उस युग के मानव के समक्ष प्रकृति के नित नतन परिवर्तनों के कारण
कुछ प्रश्नचिन्ह उभरने लगे। समय बीतता गया तो ऐसा भी समय पाया जब उसके समक्ष प्रकृति-परिवर्तन समस्यायें भी पाने लगी। प्रश्नचिन्ह उभरे अदभत, अदाटपूर्व परिवर्तनों को
लेकर; समस्याय उभरी अावश्यकताओं में नित नई बाधा उत्पन्न होने पर। वह अबोध मानव स्वयं समाधान खोज नहीं मकता था। अभी उसका बौद्धिक विकास ही कहाँ हो पाया था। किन्तु उसे समाधान तो चाहिए ही। जिन्होंने उमको समाधान दिया, जीवन की राह में नेतृत्व दिया, वे मानव असाधारण थेबुद्धि, विवक श्रीर संस्कारों में 1 ये हो मानव 'कुलकर कहलाये। उन्हें मनु भी कहा गया।
उस समय का मानब सरल था। वह सहज जीवन व्यतीत करता था । उसका जीवन समगति से चल रहा था । किन्तु प्रकृति में तीव्र गति रो परिवर्तन हो रहे थे । वह इनका अभ्यस्त नहीं था। उन परिवर्तनों को देखकर वह
चौंक उठता, भयभीत हो जाता। तब कुलकरों ने इस अवस्था में उसका मार्ग-दर्शन किया। सौदह कुलकर इस प्रकार के कुलकर १४ हए, जिनके नाम इस प्रकार है
१. प्रतिश्रुति, २. उनका पुत्र सन्मति, ३. उनका पुत्र क्षेमकर, ४. उनका पुत्र क्षेमंधर, ५. सीमंकर ६. सीमंधर, ७. विपुल वाहन, ८. चक्षुष्मान, ६. यशस्वी, १०.अभिचन्द्र, ११. चन्द्राभ, १२. मरुदेव, १३. प्रसेनजित, १४. और उनके पुत्र नाभिराज। इस प्रकार ये सभी आनुवंशिक परम्परा में उत्पन्न हए थे। ये कुलकर गंगा पौर सिन्ध महानदियों के बीच दक्षिण भरत क्षेत्र में उत्पन्न हुए थे।
इन कुलकरों के कार्य त्रिलोकसार' ग्रन्थ में इस प्रकार बताये हैंइण ससितारासायद वि भयं दंडादि समचिह कदि। तुरगादि वाहणं सिसुमुहदसण गिठभयं वेत्ति ॥७६६॥
प्रथम कुलकर ने चन्द्र-सूर्य के दर्शन से उत्पन्न भय को दूर किया। द्वितीय कुलकर ने तारों के दर्शन से उत्पन्न भय को दूर किया । तोसरे ने क्रूर मृगों के भय को दूर किया । चौथे ने हिंसक पशुओं का भय दूर किया । और उसके लिए दण्ड प्रयोग बताया। पांचवें ने प्रल्प फलदायी कल्पवृक्षों को लेकर झंझट होने लगे तो सीमा