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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास मरुदेवी भगवान के पीछे-पीछे चलती रहीं।
भगवान इस प्रकार सिद्धार्थक वन में पहुंचे। देवों ने उस वन में एक वृक्ष के नीचे चन्द्रकान्त मणि की एक शिला पहले से स्थापित कर रक्खी थी। उस शिला के ऊपर वस्त्रों का मण्डप बनाया गया था। इन्द्राणी ने रत्नों के चर्ण से चौक पुरा था। घिसे हए चन्दन के छीटे डाले थे। मण्डप के ऊपर बहुरंगी पताकार्य फहरा रही थीं। वक्षों की झकी हुई डालियों से सुगन्धित पुष्प विकोणं हो रहे थे । शिला के चारों भोर सुगन्धित धूप का धूम्र उड़ रहा था।
भगवान वहाँ आकर पालकी से उतरे और शिला पर विराजमान हो गए। तब भगवान ने प्रजाजनों से कहा-'भव्यजनो! तुम लोग शोक का परित्याग करो । प्रत्येक संयोग का वियोग होता है। जब इस शरीर का भी एक दिन वियोग होना है तो अन्य वस्तुओं की तो बात ही क्या है। मैंने आप लोगों की रक्षा के लिए अत्यन्त चतुर भरत को नियुक्त किया है। आप लोग निरन्तर अपने धर्म का पालन करते हुए उसकी सेवा करना।
यह कहकर भगवान ने माता-पिता, बन्धुजन तथा समागत जनों से पूछकर अन्तरंग, बहिरंग, दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग किया। उन्होंने वस्त्राभूषण प्रादि उतारकर एक योर फेंक दिए। फिर पूर्व दिशा की ओर मख करके पद्मासन से विराजमान होकर 'नमः सिद्धेभ्यः' कहा और पंच मुष्टियों से केश लुचन किया। इस प्रकार भगवान ने चंत्र कृष्णा नवमी के सायंकाल के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र में जिन दीक्षा धारण करली। दीक्षा लेते ही भगवान को मनःपर्ययज्ञान की प्राप्ति हो गई।
ये कंश भगवान के सिर पर चिरकाल तक रहे हैं प्रतः पवित्र हैं' यह विचार कर इन्द्र ने एक रत्न मंजषा में उन केशों को रख लिया और उस मंजूषा को एक श्वेत वस्त्र में बांध लिया । 'ये केश भगवान के मस्तक के स्पर्श से श्रेष्ठ हैं अतः इन्हें ऐसे स्थान पर रखना चाहिए , जहाँ इनके सम्मान में कोई बाधा न आवे' यह विचार कर इन्द्र बड़े अादर से उन्हें ले गया और पवित्र क्षीरसागर में उन्हें प्रवाहित कर दिया। भगवान ने जिन वस्त्रों, आभरणों और माला आदि का त्याग किया था, वे सब वस्तुएं भी भगवान के स्पर्श से पवित्र थीं, अतः देवों ने उनकी भी पूजा की।
इस कल्प काल में यह सर्व प्रथम जिन दीक्षा थी।।
भगवान ने जिन-दीक्षा ली, वे निर्ग्रन्थ दिगम्बर हो गये। उस समय मुनि-धर्म के सम्बन्ध में लोगों को कोई ज्ञान नहीं था। किन्तु स्वामी ने दीक्षा ली है, अत: हमें भी उनका अनुकरण करना चाहिए, यह विचार कर इक्ष्वाकु, कुरु, उग्र और भोजवंशी चार हजार स्वामिभक्त राजामों ने भी नग्न दीक्षा ले ली। वे लोग भगवान के उच्च प्रादर्श और उद्देश्य से अनभिज्ञ थे, अत: उनमें से कुछ भगवान के स्नेह से, कुछ मोह से और कुछ लोग भय से भगवान को दीक्षित हग्रा देखकर दीक्षित हो गये।
इन्द्रों और देवों ने भगवान की स्तुति की। इन्द्र भगवान के उस वीतराम रूप को देखता रह गया। तब उसने सहस्र नेत्र धारण कर देखना प्रारम्भ किया। किन्तु क्या उस त्रिलोक सुन्दर कमनीय रूप को देखकर किसी की तृप्ति हुई है ! इसीलिए तो प्राचार्य मानतुंग ने कहा है-'दृष्ट्वा भवन्तमनिभेषविलोकनीयं । नान्यत्र तोषभुपयाति जनस्य चक्षः ।।' प्राचार्य ने यह बात केवल भक्तिवश ही नहीं कही है कि 'प्रभो ! जिन शान्तिस्वभावी परमाणुनों से आपका शरीर निर्मित हुअा है, संसार में ऐसे परमाणु बस इतने ही थे क्योंकि आपके समान रूप मन्यत्र नहीं मिलता। प्राचार्य ने जो कहा, वह यथार्थ काही कथन है।।
इसके पश्चात् इन्द्र और देव अपने-अपने स्थान को चले गये । तब महाराज भरत ने प्रष्ट-द्रव्यों से भगवान का पूजन किया, भगवान की स्तुति की। और सूर्यास्त होने पर भी अन्य जनों के साथ अपने स्थान को लौट गये।
भगवान ने जहां दीक्षा ली थी, वह स्थान 'प्रयाग' नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस नामकरण का हेतु देते 'प्रयाग तीथं हुए प्राचार्य जिनसेन ने बताया है कि
एवभक्त्वा प्रजा यत्र प्रजापतिमपूजयन । प्रदेशः स प्रजागाख्यो यतः पूजार्थ योगतः ॥ हरिवंश पुराण ६६६
प्रर्थात् भगवान ने जब भरत को प्रजा का रक्षक नियुक्त करने की बात कही तो प्रजा ने भगवान की "पूजा की। प्रजा ने जिस स्थान पर भगवान की पूजा की, वह स्थान पूजा के कारण "प्रजाग' इस नाम को प्राप्त
पा
हुपा।