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भरत के भाई-बहनों का वैराग्य
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इससे निवृत्त होने पर एक दिन वह सुन्दरी के महलों में पहुंचा तो उसे अत्यन्त कृशकाय देखकर भरत को अत्यन्त दुःख हुआ । सेवकों से उसे इसका कारण ज्ञात हुआ तो उसने पूछा-सुन्दरी ! तुम गृहस्थ जीवन में रहना चाहती 'अथवा दीक्षा लेना चाहती हो । सुन्दरी ने दीक्षा लेने की अपनी हार्दिक इच्छा प्रगट की। तब भरत ने उसे ब्राह्म के निकट दीक्षा लेने की अनुमति प्रदान कर दी। इस प्रकार उसने भी दीक्षा लेलो ।
इस कथा के बावजूद श्वेताम्बर परम्परा ने भी दोनों को बाल ब्रह्मचारिणी माना है।
चक्रवर्ती भरत अपनी विशाल वाहिनी के साथ अयोध्यापुरी के निकट पहुँचा । नगरवासियों ने चिरकाल बाद वापिस लौटे ग्रपने हृदयसम्राट् के स्वागत के लिए प्रयोध्यापुरी को खूब सजाया था । सारे राजमार्ग और afrat हाट और निगम तोरणों और बन्दनवारों से सजाये थे। राजमार्गों पर सुगन्धित चन्दन के जल का छिड़काव किया गया था। सौभाग्यवती स्त्रियों ने मंगलकलश रखकर रत्नचूर्ण से चौक पूरे थे। सारा नगर चक्रवर्ती के स्वागत के लिए पलक पांवड़े बिछाये हुए अधीरता से प्रतीक्षा कर रहा था । किन्तु समस्त शत्रुदल का विध्वंस करने वाले चक्रवर्ती का चरत्न की रक्षा करने वाले देव इस अप्रत्याशित घटना से ग्राश्चर्य
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भाइयों का वैराग्य
गोर हार के बाहर चकित रह गये।
'सेनापति आदि प्रमुख लोगों ने इस घटना की सूचना चक्रवर्ती को दी। चक्रवर्ती भी इसका कुछ कारण नहीं खोज पाये । तब उन्होंने पुरोहित को बुलाया और उससे पूछने लगे- 'प्रार्य ! समस्त शत्रुदल का संहार करने वाला यह चरत्न मेरे ही नगर के द्वार पर क्यों रुक गया है ? यह अन्दर प्रवेश क्यों नहीं करता ? जो समुद्र में, विजयार्थ की गुफाओं में, पर्वतों और वनों में कहीं नहीं रुका, वह अव्याहतगति यह चक्र मेरे ही घर के प्रांगन में क्यों रुक गया है ? आप दिव्य नेत्र हैं । चत्र के रुकने का कोई साधारण कारण नहीं हो सकता । श्राप विचार कर बताइये । आप ही इसके रुकने का कारण बता सकते हैं ।
भारत के ऐसा कहने पर पुरोहित कुछ समय के लिए विचारमग्न हो गये। तब निमित्त - ज्ञान से इसका कारण जानकर बोले- 'देव ! हम लोगों ने निमित्त ज्ञानियों से सुना है कि जबतक दिग्विजय करता कुछ भी शेष रहता है, तब तक चक्ररत्न विश्राम नहीं लेता। व्यवहार में न आपका कोई मित्र है और न शत्रु है। सब आपके सेवक हैं । तथापि अब भी कोई आपके जोतने योग्य रह गया है। आपने बाहरी राजाओं को जोत लिया है किन्तु आपके घर के लोग अब भी भापके अनुकूल नहीं हैं। आपने समस्त शत्रु पक्ष को जीत लिया है किन्तु आपके भाई आपके प्रति नम्र नहीं हैं । उन्होंने आपको नमस्कार नहीं किया है। आपके भाई आपके विरुद्ध खड़े हुए हैं और सजातीय होने से वे बध्य भी नहीं है । श्रतः भाप उनके पास दूत भेजिये जो बातचोत द्वारा उन्हें आपके अनुकूल बनावें ।
पुरोहित के कथन को चक्रवर्ती बड़े ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। उन्हें पुरोहित का यह परामर्ष युक्तियुक्त लगा । उन्होंने सोचा --- बाहुबली महाबलवान है। उसे छोड़कर शेष भाइयों के पास मैं दूत भेजूंगा, यह विचार कर उन्होंने योग्य निःसृष्टार्थ सब भाइयों के पास भेजे। सब भाइयों ने दूतों के सन्देश सुने। फिर वे परस्पर परामर्श करने के लिए एक स्थान पर एकत्रित हुए। उन्होंने कहा- 'भरत हमारे अग्रज हैं। वे पिता के समान पूज्य हैं । किन्तु पिता जी तो अभी विद्यमान हैं। यह वैभव भी उन्हीं का दिया हुआ है। इसलिए हम लोग इस विषय में पिताजी की आज्ञा के आधीन हैं, स्वतन्त्र नहीं है।' इस प्रकार राजजनोचित नीतिमत्तापूर्ण उत्तर देकर दूतों का यथोचित सम्मान किया और भरत के पत्र का उत्तर देकर और उनके लिए उपहार देकर दूतों को विदा किया।
तब सब भाई भगवान ऋषभदेव के पास कैलाश पर्वत पर पहुँचे। उन्होंने भगवान के दर्शन किये, उनकी पूजा की। फिर निवेदन किया- हे देव ? आपने हमें जन्म दिया। मापसे हमें संसार के समस्त वैभव मिले। हम केवल
पकी प्रसन्नता के इच्छुक हैं। हम आपको छोड़कर और किसी की उपासना नहीं करना चाहते । भरत हमें प्रणाम करने के लिए बुलाते हैं । किन्तु जो सिर आपके चरणों में झुका है. वह अन्य किसी के चरणों में नहीं झुक सकता। जिसमें किसी अन्य को प्रणाम नहीं करना पड़ता, ऐसी वीर दीक्षा धारण करने के लिए हम आपके चरणों में उपस्थित हुए हैं।