________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
१६
की है । वह आन्ध्र प्रदेश के मंजिरा र गोदावरी नदियों के संगम से दक्षिण में स्थित है। इसका समर्थन 'वसुदेव हिण्डि' से भी होता है । उसके २४ वें पद्मावती लम्ब पृ० ३५४।२४० श्रौर पंचम लम्ब पृ० १८७२४१ में बताया है कि गोदावरी नदी को पार कर वह पोदनपुर पहुंच गया ।
उपर्युक्त प्रमाणों से पोदनपुर अश्मक, सुरम्य अथवा रम्यक देश में गोदावरी के निकट था जो आधुनिक आन्ध्र प्रदेश का बोधन प्रतीत होता है ।
श्वेताम्बर परम्परा में बाहुबली की राजधानी का नाम पोदनपुर के स्थान पर लक्षशिला दिया गया है । वहाँ सर्वत्र बहली देश (बाल्हीक) और तक्षशिला नगर का हो उल्लेख मिलता है। कल्पसूत्र, कुमारपाल प्रतिबोष, परिशिष्ट पर्व विविध तीर्थंकल्प इन ग्रन्थों में तथा विमलसूरिकृत पउम चरिउ में तक्षशिला को ही बाहुबली की राजधानी माना है।
इस पोदनपुर को दिगम्बर परम्परा की निर्वाण भक्ति में सिद्ध क्षेत्र या निर्वाण क्षेत्र माना है ।
१७. चक्रवर्ती का वैभव
भरत ने चारों दिशाओं के राजाओंों को जीत लिया था। अब उनका कोई शत्रु शेष न था । भारत जम्बूद्वीप के दक्षिण भाग में स्थित है । इसके उत्तर में हिमवान् पर्वत है । और मध्य में विजयार्ध पर्वत पड़ा हुआ है। पश्चिम में हिमवान् से निकली हुई सिन्धु नदी बहती है और पूर्व में गंगा नदी, जिससे उत्तर भारत के तीन विभाग हो जाते हैं। दक्षिण के भी पूर्व मध्य और पश्चिम दिशाओं में तीन विभाग हैं । ये ही भारत के छह खण्ड हैं। इन छह खण्डों को भरत ने जीत लिया था और चक्रवर्ती पद धारण किया था। वह भारत का प्रथम चक्रवर्ती था ।
चक्रवलों का राज्य भिषेक
दिग्विजय करके जब भरत अयोध्या नगरी में वैभव के साथ प्रविष्ट हुए तो समस्त राजानों और नागरिकों ने अपने चक्रवर्ती सम्राट् का अभूतपूर्व स्वागत किया। तब शुभ मुहूर्त में राजाओं ने और प्रजा ने भगवान ऋषभदेव के समान उनका राज्याभिषेक किया। राजाथों के साथ देवों ने प्रथम चक्रवर्ती का अभिषेक किया । उन्हें दिव्य वस्त्र और अलंकार पहनाये। उनकी जय घोषणा की। दुन्दुभि और मांगलिक भेरियों का नगर में मधुर निनाद गूंजता रहा। गंगा और सिन्धु नदियों की अधिष्ठात्री देवियों ने आकर तीर्थं जल से अभिषेक किया। फिर अनेक देवों, विद्याधरों, नरेशों और प्रजा ने सिंहासनासीन चक्रवर्ती भरत के चरणों में भेंट समर्पित करके नमस्कार किया। फिर भरत ने समागत राजाओं का समुचित सत्कार किया ।
महाराज भरत को चक्रवर्ती पद पाकर अभिमान नहीं हुआ, बल्कि उनके मन में दुःख था कि मैंने अपने भाइयों को यह विभूति नहीं बाँट पाई । सारी प्रजा ऐसे न्यायवत्सल स्वामी को पाकर छपने पापको सनाथ अनुभव करने लगी थी ।
चारों ओर उनका जय जयकार हो रहा था - यह सोलहवां मनु है । यह प्रथम चक्रवर्ती है । राजराजेश्वर हैं ।
षट् खण्ड का स्वामी चक्रवर्ती अपार वैभव के स्वामी थे। उनके पास चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रत्न निर्मित रथ, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी करोड़ पदाति थे । वे वावृषभनाराच संहनन भरत का वैभव के धारी थे। उनका समचतुरस्र संस्थान था । उनके शरीर में चौंसठ शुभ लक्षण थे। सम्पूर्ण राजाओं के सम्मिलित बल के बराबर उनके शरीर में बल था। उनके दरबार में बत्तीस