________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
६४
कितने कृत्य कराते हैं । किन्तु क्षणभंगुर जीवन का व्यय केवल अहंकार और विषयों के लिये करना क्या बुद्धिमत्ता है ? इस मानव जीवन का प्रयोजन इससे कहीं महान् है ।
इसके पश्चात् उन्होंने भरत की भर्त्सना करते हुए कहा- हे राजाश्रों में श्रेष्ठ ! लज्जा को छोड़कर तुम सुनो। मेरे प्रभे शरीर पर तुमने चक्र चलाकर बड़े दुस्साहस का कार्य किया है। तुम अपने भाइयों से इस राज्य को छीनकर अकेले ही उसका भोग करना चाहते हो । ब यह राज्य तुम्हें ही मुबारिक हो । मैं अब इस राज्यलक्ष्मी का परित्याग करके तप-लक्ष्मी का वरण करना चाहता हूँ। मैंने आपकी विनय नहीं की थी, उसे आप क्षमा करें।
बाहुबली के बचन सुनकर भरत को भी अपने कार्य पर बहुत अनुताप हुआ और वे अपने कृत्य की निन्दा करने लगे । बाहुबली ने अपने पुत्र महाबली को राज्य सौंप कर भगवान वृषभदेव के चरणों का ध्यान करते हुए मुनि दीक्षा ले ली। वे वहाँ से बिहार करते हुए कुछ समय भगवान के निकट रहे। फिर वे कैलाश पर्वत पर पहुंचे और एक वर्ष का प्रतिमा योग लेकर निश्चल खड़े होकर तपस्या करने लगे । वे कभी श्राहार के लिये नहीं गये । एक स्थान पर खड़े हुए उनके शरीर पर माधवी लतायें चढ़ गई। वामी के छिद्रों से भयानक सर्प निकल कर उनके चरणों पर फण फैलाकर बैठ जाते । सर्प के बच्चे उनके शरीर से किलोल करते। उनके केश बढ़कर कन्धों तक लटकने लगे । विद्यारियां आकर उन वासन्ती लताम्रों को हटाती; उनके पत्ते तोड़ देतीं। तीव्र तपस्या करते हुए उनका शरीर ज्यों ज्यों कृश होता जा रहा था, उनके कर्म भी उसी प्रकार कृश हो रहे थे । उन्होंने श्राहार, मैथुन, भय और परिग्रह इन चारों संज्ञाओं पर विजय प्राप्त कर ली। उन्होंने अपनी ग्रात्मा द्वारा आत्मा को जीत लिया था। उन्हें अनेक ऋद्धियां प्राप्त हो गई थीं। जाति विरोधी जीव उनके निकट निर्भय होकर विचरण करते थे ।
जिस दिन उनका एक वर्ष का नियम पूरा होने वाला था, उसी दिन चक्रवर्ती भरत माये । उन्होंने बाकर महामुनि बाहुबली की पूजा की। इससे पहले बाहुबली के मन में यह विकल्प रहता था कि भरत को मेरे कारण क्लेश पहुँचा है । किन्तु भरत द्वारा पूजा करने पर वह विकल्प भी दूर हो गया श्रीर तत्काल केवलज्ञान प्रगट हो 'गया। उसके पश्चात् चक्रवर्ती ने पुनः महापूजा की। भगवज्जिनमेन आचार्य कहते हैं कि केवलज्ञान से पहले भरतेश्वर ने जो पूजा की थी, वह अपना अपराध नष्ट करने के लिये की थी और केवलज्ञान होने के पश्चात् जो पूजा की, वह केवलज्ञान का अनुभव करने के लिये की थी ।
चत्रवर्ती की पूजा की कल्पना करना भी कठिन है। उन्होंने रत्नों का अर्ध बनाया था। गंगा के जल की जल धारा दी यो । रत्नों की ज्योति के दीपक चढ़ाये थे । अक्षत के स्थान पर मोती चढ़ाये थे । अमृत के पिण्ड से नवेद्य ग्रर्पित किया था । कल्पवृक्ष के चूर्ण की धूप बनाई थी। पारिजात के पुष्पों से पुष्पों की पूजा की थी । श्रर फलों के स्थान पर रत्न और निधियों चढ़ाई थीं।
केवलज्ञान उत्पन्न होने पर इन्द्र और देवों ने आकर महामुनि बाहुबली की पूजा की । उस समय सुगन्धित वायु वह रहा था । श्राकाश में देव दुन्दुभि बज रही थी । पुष्प वर्षा हो रही थी । मुनिराज के ऊपर तीन छत्र और उनके नीचे दिव्य सिंहासन सुशोभित हो रहा था। उनके दोनों ओर चमर ढोले जा रहे थे । देवों ने उनके लिये गन्धकुटी की रचना की । अब वे श्ररहन्त परमेष्ठी वन गए
थे 1
भगवान बाहुबली ने समस्त पृथ्वी पर बिहार किया और संसार को कल्याण मार्ग का उपदेश दिया । अन्त में वे भगवान वृषभदेव के समीप कैलाश पर्वत पर पहुंचे और वहीं से मुक्त हुए ।
पोदनपुर- निर्णय
प्रादिपुराण में भरत के भेजे हुए दूत का जो वर्णन आया है, उसमें पोदनपुर के मार्ग तथा पोदनपुर के निकटवर्ती प्रदेश का वर्णन आया है, उससे पोदनपुर के सम्बन्ध में कुछ प्रकाश पड़ता है । यद्यपि उससे यह निर्णय कर सकना कठिन है कि पोदनपुर कहाँ था । किन्तु उससे इस बात पर प्रकाश अवश्य पड़ता है कि पोदनपुर के प्रासपास कौन कौन सी फसलें होती थीं। उसमें पर्व ३५ श्लोक २५-२६ में वर्णन है कि नगर से बाहर धानों से युक्त मनोहर पृथ्वी को पाकर और पके हुए चावलों के खेतों को देखता हुआ वह दूत बहुत आनन्द को प्राप्त हुआ। जो बहुत से फलों से शोभायमान है