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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
जब भगवान को यौवन दशा प्राप्त हुई तो उनका अनेक सुन्दरी राजकन्याओं के साथ विवाह हो गया और वे संसार के भोग भोगने लगे । राजा जितशत्रु अब वृद्ध हो चुके थे । उन्होंने अपने पुत्र को बुलाकर स्वयं मुनिदीक्षा लेने की इच्छा प्रगट की और राज्य-भार उन्हें सौंपकर वन में जाकर दीक्षा ली। अब भगवान अजितनाथ प्रजा का पालन करने लगे। प्रजा उनके न्याय और व्यवहार के कारण उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रेम करती थी।
यद्यपि अजितनाथ भगवान राज्य कर रहे थे पौर स्त्रियों का भोग भी करते थे, किन्तु उनके मन में सदा विराग की ही भावना रहती थी। वे भोगों में कभी आसक्त नहीं हुए। वे अनासक्त वृत्ति से ही संसार के सब कार्य
लिए रहे थे। एक दिन वे महल की छत पर बैठे हुए प्रकृति की शोभा देख रहे थे भगवान का वीक्षा- कि उन्हें बादलों में एक क्षण को उल्का दिखाई पड़ी और तत्क्षण वह विलीन हो गई। ग्रहण
भगवान को इस चंचल और अस्थिर उल्का को देखकर बोध हुमा-संसार के भोग ओर यह
लक्ष्मी भी इसी प्रकार चंचल और अस्थिर है। उन्होंने इन भोगों और इस विनश्वर लक्ष्मा का त्याग करने का तत्काल मन में संकल्प कर लिया। तभी लौकान्तिक देवों ने ब्रह्म स्वर्ग से आकर भगवान के संकल्प की सराहना की। भगवान ने मपने पुत्र मजितसेन का राज्याभिषेक किया और दीक्षा लेने पल दिए । इन्द्रों मौर देवों ने उनका निष्क्रमण महोत्सव मनाया। भगवान ने माघ शुक्ला E को रोहिणी नक्षत्र का उदय रहते सहेतुक वन में सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा लेली । दीक्षा लेते ही उन्हें तत्काल मनःपर्यय ज्ञान हो गया।
उन्होंने दूसरे दिन साकेत नगरी में ब्रह्मा नामक राजा के घर पाहार लिया। वे फिर वनों में जाकर घोर तप करने लगे। बारह वर्ष तपस्या करने के पश्चात उन्हें पौष शुक्ला एकादशी की सन्ध्या के समय रोहिणी नक्षत्र में भगवान को केवल लोकालोक प्रकाशक निर्मल केवलशान प्राप्त हो गया। इन्द्रों और देवों ने आकर केवलज्ञान ज्ञान की पूजा की। समवसरण की रचना हुई और भगवान ने धर्म-चक्र-प्रवर्तन किया।
उनके परिकर में ६० गणधर, ३७५० पूर्वधारी, २१६०० शिक्षक, ६४०० प्रवधिज्ञानी, २०००० केवल भगवान का परिवार ज्ञानी, २०४०० विक्रिया ऋद्धिधारी, १२४५० मनः पर्ययज्ञानी और १२४०० अनुसरवादी
थे। कुल एक लाख मुनि, तीन लाख बीस हजार आर्यिकार्थे, तीन लाख श्रावक और पांच लाख श्रविकायें थीं।
उन्होने समस्त पार्य क्षेत्र में बिहार किया। उनके उपदेशों को सुनकर असंख्य प्राणियों ने प्रात्म-कल्याण भगवान का निर्वाण किया। अन्त में सम्मेदाचल पर पहुंचकर एक माह का योग-निरोध करके समस्त अवशिष्ट कल्याणक कर्मों का क्षय कर दिया और चैत्र शुक्ला पंचमी को प्रात:काल के समय भगवान को निर्वाण
प्राप्त हो गया। भगवान अजितनाथ भगवान ऋषभदेव के काफी समय पश्चात् उत्पन्न हुए थे। भगवान अजितनाथ को भगवान अजितनाथ जब केवलशान उत्पन्न हुमा, तब तक भगवान ऋषभदेव का तीर्थ प्रचलित था। केवलज्ञान की
का तीर्थ प्राप्ति के पश्चात् भगवान अजितनाथ का तीर्थ प्रवृत्त हया और वह तीसरे तीर्थकर संभवनाथ को केवलज्ञान प्राप्त होने तक चला। प्रापके समय में दूसरा रुव हुमा।
पक्ष-यक्षिणी-पापका सेवक महायज्ञ पौर सेविका रोहिणी यक्षिणी थी।