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सगर चक्रवर्ती
बरस देश के पृथ्वी नगर का अधिपति जयसेन नामक राजा राज्य करता था। जयसेना उसकी रानी थी और रतिषेण एवं धृतिषेण नामक उसके दो पुत्र थे। दोनों ही पुत्र पिता को प्राणों के समान प्रिय थे। दुर्भाग्यवश रतिर्पण
की मृत्यु हो गयी । इस असह्य श्राघात से जयसेन बहुत शोकाकुल हो गया। इस अवस्था में वह धर्म की ओर अधिक ध्यान देने लगा, जिससे शोक का भार कम होकर शान्ति मिल सके । एक दिन विचार करते करते उसे संसार के इस भयानक रूप को देख कर वैराग्य हो गया और उसने घुतिषेण नामक पुत्र को राज्य भार सौंप कर अनेक राजाओं और महारूत नामक अपने साले के साथ यशोधर मुनिराज के पास सकल संयम धारण कर लिया अर्थात् वह मुनि बन गया । जयसेन श्रौर महारुत ने घोर तप किया। अन्त में समाधिमरण किया और वे दोनों अच्युत नामक देव हुए । दोनों के नाम क्रमशः महाबल और मणिकेतु हुए। स्वर्ग में भी दोनो में बड़ी प्रीति थी। उन दोनों देवों ने एक दिन प्रतिज्ञा की कि हम लोगों में जो पहले पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर मनुष्य बनेगा, उसे दूसरा देव समझाने जायेगा और दीक्षा लेने की प्रेरणा करेगा ।
पटू खण्ड का
अधिपति
सगर चक्रवतीं
महाबल देव अपनी आयु पूर्ण होने पर अयोध्या नगरी के इक्ष्वाकुवंशी नरेश समुद्रविजय और रानी सुवाला के समर, नाम का पुत्र हुआ। एक दिन उसकी आयुधशाला में चक्र रत्न उत्पन्न हुआ । उसने चक्र रत्न की सहायता से भरत क्षेत्र के षट्खण्डों पर विजय प्राप्त की और वह चक्रवर्ती पद से विभूषित हुआ । चक्रवर्ती भरत के समान ही उसकी विकृति थी । उसके महा प्रतापी साठ हजार पुत्र हुए।
एक समय सिद्धिवन में चतुर्म ुख नामक एक मुनिराज को केवलज्ञान प्रगट हुआ। उसके ज्ञान की । पूजा करने के लिए इन्द्र और देव भाये। मणिकेतु देव भी उनके साथ आया। वहाँ उसे अवधिज्ञान से ज्ञात हुआ कि मणिकेतु द्वारा हमारा मित्र महाबल यहाँ सगर नामक चक्रवर्ती हुआ और भोगों में आसक्त है। वह अपने सगर को मित्र के पास आया। वह सगर से मिला और अपना परिचय देकर तथा दोनों में हुई प्रतिज्ञा का स्मरण दिलाकर उसे मुनि दीक्षा लेने की प्रेरणा की। किन्तु सगर के ऊपर इसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ा ।
का यत्न
कुछ समय पश्चात् मणिकेतु देव चारण द्विधारी मुनि का रूप धारण करके सगर के चंत्यालय में आकर ठहरा । सगर ने मुनिराज को देखकर उनकी पाद बन्दना की और उनके सुकुमार रूप को देखकर पूछा - 'आपने इस अल्पवय में क्यों मुनि दीक्षा ली है? वह देव बोला- 'संसार में दुःख ही दुःख । यहाँ सदा इष्ट-वियोग और अनिष्ट संयोग होते रहते हैं। मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि यह सब कर्मों के कारण है। मैं तप के द्वारा इन कर्मों का हो बिनाश करना चाहता हूँ। वक्रवर्ती ने सुना किन्तु पुत्रों के मोह के कारण उसने देव के इस कथन की भी उपेक्षा कर दी। वह देव पुनः निराश होकर वापिस चला गया ।
किसी समय चक्रवर्ती राज्य सभा में सिंहासन पर विराजमान थे। तभी उसके साठ हजार पुत्र आये और पिता से कहने लगे 'हम लोग क्षत्रिय पुत्र है । निठल्ले बैठना हमें अच्छा नहीं लगता। आप हमें कोई कार्य दीजिये, अन्यथा भोजन भी नहीं करेंगे । चक्रवर्ती पुत्रों की बात सुनकर चिन्ता में पड़ गये। फिर विचार कर बोले- पुत्रो ! भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर रत्नमय चौबीस जिनालय बनवाये थे । तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गंगा