________________
१००
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
विपाकी अर्थात् सुदूर भविष्य में फल देने वाले हैं। इस समय इन स्वप्नों का कोई प्रभाव नहीं होगा, पंचम काल में इनका फल प्रगट होगा । तू इन स्वप्नों का फल समझकर विघ्नविनाशी धर्म में अपनी बुद्धि लगा।
भरत भगवान से स्वप्नों का फल सुनकर उन्हें नमस्कार करके वहाँ से लौटे।
२०. भरत की विदेह वत्ति
भरत चक्रवर्ती थे। अतुल सम्पदा थी। उनकी देवांगनामों को लज्जित करने वाली छियानवे हजार रानियां थीं। उनका शरीर नीरोग था। उनका बल मनुष्य लोक में सबसे अधिक था । अर्थात राजप्रासाद में निमग्न और लिप्त रहने के उनके पास सभी साधन थे। किन्तु विपुल भोग-सामग्री उपलब्ध बन्धनमालाएं होने पर भी वे कर्मोदयजनित भोगों को अनिच्छापूर्वक भोगते थे। उनके मन में इन भोगों से मुक्त होने की भावना सदा जागृत रहती थी। जरा मनमा सिसोही ने प्रारमनप के चिन्तन में लीन हो जाते थे। उन्हें प्रात्मानुभव में जो रस पाता था, जिस अानन्द की अनुभूति होती थी, वैसी अनुभूति भोगों में नहीं पाती थी। ये भोगों को खुजली का रोग समझते थे। जब तक ख जाया, तब तक थोड़ा सुख प्रतीत हुभा । किन्तु वह रोग पापमूलक है, पाप परिणामी है, दु:ख ही उसका अन्त है । इसी प्रकार वे भी सोचते थे—इस नश्वर शरीर के सुख के लिये नश्वर साधन जुटाते हैं, उनसे सुख भी नश्वर मिलता है और फिर उसका परिणाम दुःख होता है। प्रात्मा शाश्वत है । अतः उसका सुख भी शाश्वत है। वह सुख निरालम्ब दशा में ही मिल सकता है। शरीर का पालम्बन करके शरीर का क्षणिक सुख तो मिल सकता है, मात्मा का सुख उससे कैसे मिलेगा। प्रात्मा का सुख तो प्रात्मा के आलम्बन से ही मिल सकेगा। जिन्हें वह प्रात्म-सुख पूर्ण रूप से प्राप्त हो चुका है, उनके स्मरण से आत्मोन्मुखता की प्रेरणा मिल सकती है।
यह विचार कर भरत सदा आत्मोन्मुखता का अभ्यास करते रहते थे। जब उनका उपयोग प्रात्मोन्मुख न होकर बहिर्मुख होता था तो तीर्थकरों का स्मरण करने लगते थे। वे भगवान का स्मरण करने में प्रसावधान न हो जाय, इसके लिए उन्होंने कुछ ऐसे उपाय किए थे, जिससे उन्हें भगवान का ध्यान, स्मरण और बन्दन करने का स्मरण बना रहे। उन्होंने अपने महलों के द्वार पर, कक्षों और प्रकोष्ठों के द्वार पर रत्न निर्मित चौबीस घण्टियों की बन्दनमालाएं बनवाई थीं । जब वे उन द्वारों में से निकलते थे, तब उनके मुकुट से टकराकर वे षण्टियो शम्द करती थीं। घण्टियों की भावाज सुनकर भरत को चौबीस तीर्थंकरों का स्मरण हो पाता था, जिससे वे उन्हें तत्काल परोक्ष नमस्कार करते थे।
हरिवंशपुराण में प्राचार्य जिनसेन ने भरत की इन बन्दनमालाओं का वर्णन बड़े भक्तिपूरित शब्दों में किया है । वे लिखते हैं
'चतुर्विशति तीर्थेशयन्दनाय शिरःस्पृशम् ।
अजीकरवसी वेश्मद्वारे बन्दनमालिकाम् ॥१२॥२ अर्थात् उन्होंने चौबीस तीर्थकरों की वन्दना के लिए अपने महलों के द्वार पर सिर का स्पर्श करने वाली वन्दनमालायें बंधवाई थीं।
___ भगवज्जिनसेनाचार्य ने 'आदिपुराण' में वन्दनमालामों के सम्बन्ध में कुछ विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्हीं के शब्दों में