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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
अर्थात् उस समय प्रथम राजा भरत की बनाई हुई इस सृष्टि को प्रजा के लोगों ने बहुत माना था । यही कारण है कि आज भी प्रत्येक घर पर वन्दनमालायें दिखाई देती हैं। चूंकि भरतेश्वर ने वे मालाएँ अरहन्त देव की बन्दना के लिए बनवाई थीं, इसलिये ही वे वन्दनमाला नाम पाकर पृथ्वी पर प्रसिद्धि को प्राप्त हुई है। वन्दनमाला के इस रहस्य को लोक में प्रचारित करने की श्रावश्यकता है। यदि लोग बन्दनमाला का मूल रूप और उद्देश्य समझ जायें तो वन्दनमाला पुनः अपने वास्तविक रूप को पा सकती है।
चक्रवर्ती भरत को अनेक राज-काज रहते थे। उन्हें सम्पूर्ण भरत क्षेत्र पर शासन करना पड़ता था । नेकों राजाश्रों के विद्रोह को दबाना पड़ता था । विदेशी नरेशों से सन्धि श्रौर मैत्री के कूटनैतिक दांव चलाने पड़ते थे। प्रजा की बहुविध शिकायतों और समस्याओं को सुलझाना पड़ता था। फिर अन्तःपुर और भरत को मुनि भक्ति परिवार की समस्यायें नाना रूप लेकर आती और उन्हें हल करना होता था । जिनकी छियानवे हजार रानियां हों, उनकी समस्याओं का क्या कोई अन्त हो सकता है। कोई रानी रूठ रही है, कोई सौतिया डाह से शिकायतें पेश कर रही है। माना कि सभी रानियों में परस्पर बहनापा था । किन्तु मानव स्वभाव कहाँ चला जायगा । जलन और कुढ़न, षड्यन्त्र और प्रभाव अभियोग ! इन सब टेढ़ी-मेढ़ी गालियों को पारकर सबकी सन्तुष्टि का राजमार्ग पाना क्या सरल होता है। किन्तु चक्रवर्ती कुशल तैराक थे । समस्याओं की भीषण प्रवाह वाली नदी में तैरना ही जैसे उनका नित्य का व्यापार था। कभी कहीं कोई भड़ास नहीं । राजा हों या प्रजा, पत्नी हों या परिजन, राज्य हो या अन्तःपुर, चक्रवर्ती के व्यवहार से सभी सन्तुष्ट थे। सब यही समझते, मानो महाराज एकमात्र उन्हें ही चाहते हैं। महाराज की सर्वप्रियता का रहस्य उनके कोमल स्वभाव, उनका व्यवहार चातुर्य और सर्वजन समभाव में निहित था ।
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सब उन्हें चाहते थे, सभी उन पर अपनी जान न्यौछावर करते थे, वे सबके थे। किन्तु भरत केवल अपने थे, वे सदा अपने में रहते थे । सारा लोक व्यवहार करते थे, किन्तु वे इस सबसे जैसे पृथक् थे । संसार में रहते थे, किन्तु वो उन्होंने अपने भीतर पर नहीं बताया। संसार के समुद्र में वे कमल बनकर रहते थे । वे श्रावकोचित आवश्यक धार्मिक कृत्यों के करने में कभी प्रमाद नहीं करते थे और लौकिक या धार्मिक कृत्य करते हुए भी आत्मस्वरूप के चिन्तन की ओर सदा सावधान रहते थे। ऐसा था बहुधन्धी श्रीर व्यस्त चक्रवर्ती का अद्भुत जीवन । भरत समय के बड़े पावन्द थे । उनके प्रत्येक कार्य का समय सुनिश्चित था। मुनि चर्या के समय वे अन्य कार्य छोड़कर मुनिजनों को आहार दान के लिये तैयार हो जाते। वे समस्त राजचिह्नों को उतार कर शुद्ध घोती व दुपट्टा पहनते और एक रेशमी दुकूल कमर से बांध लेते। इस समय वे सम्राट् भरत नहीं, बल्कि पात्र दान की प्रतीक्षा करने वाले सामान्य श्रावक थे । पात्र दान के लिये द्वारापेक्षण करते समय उनके बांये हाथ में अष्ट द्रव्य और दांये हाथ में जल का कलश रहता था । माण्डलिक और महामाण्डलिक सदा जिनके ऊपर छत्र-मर लिये ढोरते थे, वे ही भरत चक्रवर्ती विनय भाव से गुरुनों की सेवा के लिये प्रतीक्षारत हैं । वे अपने भृत्यों को समझा रहे हैंजब मुनि महाराज पधारें, उस समय तुम लोगों को मेरे लिये महाराज आदि नहीं कहना चाहिये और न मेरे प्रति हाथ जोड़ कर खड़ा रहना चाहिये ।
राजप्रासाद से बाहर राजद्वार के बगल में बने हुये चबूतरे के पास पहुँचे। उन्होंने प्रष्ट द्रव्य की थाली और जलपूर्ण कलश चबूतरे पर रक्खी हुई एक चौकी पर रख दिये और वे मुनियों की प्रतीक्षा करने लगे। वे उस समय अकेले ही खड़े थे। उनकी स्त्रियाँ तथा नरेश गण उनसे दूर खड़े हुये थे ।
सामान्य जनों के केवल दो आँखें होती हैं, जिन्हें चर्म चक्षु कहा जाता है। किन्तु विवेकी जनों के एक आँख भर होती है, जिसे ज्ञान चक्षु कहते हैं। भरत अपने दोनों चर्म चक्षुत्रों से मुनियों के मार्ग का अवलोकन कर रहे थे, किन्तु वे अपनी भीतर की आँखों से - ज्ञान चक्षुमों से श्रन्तरात्मा का निरीक्षण कर रहे थे । उन्हें भीतर अपनी प्रात्मा का साक्षात्कार हो रहा था। उन्हें भाश्चर्य हो रहा था कि सरसों के दाने में जैसे समुद्र अटक गया हो, ऐसे ही यह त्रैलोक्यवेत्ता ज्ञानशरीरी आत्मा इस क्षुद्र शरीर में क्यों कर पटक रहा है ?