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भारत की विदेह वृत्ति
लोक में बम्बनमाला की परम्परा
निर्मातास्ततो घण्टा जिनवरलंकृताः । परार्ध्य रत्ननिर्माणाः सम्बद्धा हेमरज्जुभिः ॥ ४१८७ लम्बिताश्च पुरद्वारि ताश्चतुविशति प्रभाः । राजवेश्ममहाद्वार – गोपुरेष्वप्यनुक्रमात् ।।४१।८८ यत्रा किल विनिर्यति प्रविशत्यत्ययं प्रभुः । तवा मौल्यप्रलग्नाभिरस्य स्थावर्हता स्मृतिः ॥४११८६ स्मृत्वा ततोऽहं वर्चानां भक्त्या कृत्वाभिनन्वनाम् । पूजयत्यभिनिष्क्रामन् प्रविवश्चि स पुण्यधीः ।। ४१६०
अर्थात् उन्होंने बहुमूल्य रत्नों से बने हुए, सुवर्ण रस्सियों से बन्धे हुए और जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाओं से सजे हुए बहुत से घण्टे बनवाये तथा ऐसे-ऐसे चौबीस घण्टे बाहर के दरवाजे पर राजभवन के महा द्वार पर और गोपुर दरवाजों पर अनुक्रम से टंगवा दिये। जब वे चक्रवर्ती उन दरवाजों से बाहर निकलते अथवा भीतर प्रवेश करते, तब मुकुट के प्रभाग पर लगे हुए घण्टों से उन्हें चोबोस तीर्थंकरों का स्मरण हो माता था । तदनन्तर स्मरण कर उन अरहन्त देव की प्रतिमाओं को वे नमस्कार करते थे। इस प्रकार पुण्य रूप बुद्धि को धारण करने वाले महाराज भरत निकलते और प्रवेश करते समय ग्ररहन्तदेव की पूजा करते थे ।
राजा का अनुकरण प्रजा करती है। यदि राजा लोकप्रिय और धर्मात्मा हो तो प्रजा उसके आचार पाका अनुकरण करने लगती है। सम्राट् धर्मात्मा और लोक प्रिय थे, वे प्रजा के हृदय सम्राट थे । प्रजा उन्हें प्राणों से भी अधिक चाहती थी। प्रजा भी उस काल में धर्मात्मा थी। ग्रतः उनका सम्राट् जो करता था, उसका अनुगमन प्रजा बहुत शोध करने लगती थी । भरत ने अपने प्रासाद के तोरणों पर द्वारों पर और गोपुरों पर बर्हन्त प्रतिमानों से घण्टों की बन्दनमाला लटकाई थो। उनके इस कृत्य का अनुकरण प्रजा भी करने लगा । बिना किसी प्रयत्न के भरत के इस कार्य का जनता में प्रचार हो गया। प्रजा में एक दूसरे के अनुकरण द्वारा यह रिवाज और परम्परा बन गई और प्रत्येक घर के द्वार पर बन्दनमाला टंगने लगो । श्रादिपुराणकार ने इस परम्परा का वर्णन बड़े सुन्दर शब्दों में किया है। आप लिखते हैं
युक्त
'रत्नतोरणविन्यासे स्थापितास्ता निधीशिना ।
दृष्ट्वाहं वन्दनाह तो लोकोऽप्यासीदादरः || ४१/६३ पोरंजनरतः स्वेषु वेश्मतोरणक्षमसु ।
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यथाविभवमावद्धा घन्टास्ता सपरिच्छदाः ॥४६॥६४
अर्थात् निधियों के स्वामी भरत ने अर्हन्त देव की बन्दना के लिये जो घण्टा रत्नों के तोरणों की रचना में स्थापित किये थे, उन्हें देखकर अन्य लोग भी उनका आदर करने लगे। उसी समय से नगरवासी लोगों ने भी अपनेअपने घर की तोरणमालाओं में अपने-अपने वैभव के अनुसार जिन प्रतिमा आदि से युक्त घण्टे बांधने शुरू कर दिये । भरत के इस कार्य का अनुकरण तत्कालीन समाज में ही नहीं किया था, उस परम्परा का निर्वाह अय तक हो रहा है। यद्यपि उसका मूल रूप वह नहीं रहा। शायद रह भी नहीं सकता था। काल के विशाल अन्तराल में उद्देश्य तो तिरोहित होगया, इसलिए घण्टों का और वन्दनमालाओं का वह रूप भी नहीं रह पाया । किन्तु फिर भी वन्दनमाला अब भी हर शुभ कार्य में बांधी जाती है और समाज उसे मांगलिक चिह्न मानता है । इसी ग्राशय को प्रगट करते हुए श्रादिपुराणकर्त्ता लिखते हैं
श्रादिराजकृतां सृष्टि प्रजास्तां बहुमेनिरे ।
प्रत्यगारं चतोऽद्यापि लक्ष्या वन्दनमालिका ॥४१३६४ aari कृता माला यतस्ता भरसेशिना । ततो बन्नमालायां प्राप्य हृदि गताः क्षितौ ॥ ४१६६