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भरत का निष्पक्ष न्याय
आये। राजा श्रकंपन ने उनकी अभ्यर्थना की, उनके निवास आदि की समुचित व्यवस्था की
इस स्वयंवर में सम्मिलित होने अथवा भाग लेने के लिये चक्रवर्ती भरत के पुत्र युवराज प्रर्ककीर्ति, चक्रवर्ती के सेनापति रत्न राजकुमार जयकुमार, नमि-बिनमि के पुत्र सुमि और सुविनमि आदि अनेक भूमि गोधरी श्रीर विद्याधर राजा आये। शुभ लग्न के समय स्वयम्बर मण्डन में सभी समागत राजा मोर राजकुमार अपने योग्य मासनों पर बैठ गए। कुमारी सुलोचना को भी स्नान कराकर और वस्त्राभूषणों से अलंकृत करके उसकी माता सुप्रभा ने तैयार किया। सुलोचना सर्वप्रथम जिनेन्द्रदेव के मन्दिर में गई। वहाँ उसने भक्तिपूर्वक पूजन किया। पूजन समाप्त होने पर उसके पिता ने आशीर्वाद के रूप में शेषाक्षत उसके सिर पर रखे। तब सुलोचना महेन्द्रदत्त कंचुकी के साथ विवाह मण्डप में प्रविष्ट हुई। वह जब वहाँ पहुंची तो सभी राजा बड़ी उत्सुकता से उसे देखने लगे। उसकी रूपछटा देखकर सब विमुग्ध होकर सोचने लगे- यह देवकन्या अवतरित हुई है अथवा स्वयं शची ही विनोद करने यहाँ पधारी है। ऐसा मोहक रूप तो श्राज तक देखने में नहीं आया ।
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सभी उद्भव होकर बड़ी उत्कण्ठा से मन में कामना करने लगे- काश ! सौन्दर्य को यह खान मुझे प्राप्त हो जाय तो मानव जन्म सफल हो जाय । सभी प्राशान्वित थे, सभी को अपने पुण्य पर विश्वास था। कंचुकी कम क्रम से राजकुमार प्रत्याशियों का परिचय देता जाता था । कुमारी सुलोचना एक दृष्टिपात करके आगे बढ़ जाती । वह जिस ओर जाती, वही राजकुमार श्राशा से मधुर सपने सजोने लगता, किन्तु जब वह आगे बढ़ जाती तो वे दिवा स्वप्न एक प्राघात से टूट जाते । जब सुलोचना कोल आदि राजकुमारों को छोड़कर जयकुमार के सामने पहुंची तो कंचुकी ने जयकुमार के गुण वर्णन करना प्रारम्भ किया—यह हस्तिनापुर नरेश सोमप्रभ का यशस्वी पुत्र है | इसका रूप कामदेव को लज्जित करने वाला है। इसने उत्तर भरतक्षेत्र में मेघकुमार नामक देवों को जीतकर वादलों की गर्जना को जीतने वाला सिह्नाद किया था । उस समय निधियों के स्वामी महाराज भरत ने हर्षित होकर अपनी भुजाओं पर धारण किया जाने वाला वीरपट्ट इसके बांधा था तथा प्रेम से इसका नाम मेधेश्वर रक्खा था ।
कंचुकी जब यह विरुदावली बोल रहा था. उस समय वस्तुतः सुलोचना वह सब सुन नहीं रही थी। वह तो हृदय से जयकुमार के लिये श्रात्म-समर्पण कर चुकी थी और शासक्त भाव से उसे निहार रही थी। उधर जयकुमार भी मुग्ध भाव से उसे देख रहा था। दोनों ही एक दूसरे में खोये हुए थे। दोनों के शरीर कंटकित हो रहे थे। जयकुमार के सामने खड़ी हुई सुलोचना ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो कामदेव के सामने विह्वल रति खड़ी हो । उसने कंचुकी के हाथों में से रत्नमाला लेकर जयकुमार के गले में डालदी। जब सुलोचना ने दोनों बाहें उठाकर वरमाला जयकुमार के गले में डाली, उस समय ऐसा लगता था, मानो बिछुड़े हुए अपने पति कामदेव को पाकर अधीर रति ने दोनों भुजायें पसार कर आलिंगन किया हो । शेष राजकुमारों की मुख को कान्ति उचट कर मानों जयकुमार के मुखकमल पर था जमी ।
तभी मंगल वाद्यों की मधुर ध्वनि से सारा मण्डप और वन प्रान्त एकबारगी ही प्रतिध्वनित हो उठा। नाथ वंश के अधिपति कंपन आगे माये और अपनी पुत्री को साथ में लेकर और जयकुमार को आगे करके नगर की ओर चले। साथ में बन्धु बान्धव और अनेक राजा थे। इस युग का यह प्रथम स्वयम्बर था और जयकुमार इस मुहिम का प्रथक विजेता था ।
सेवक था ।
किन्तु इस हर्षोत्सव में असूयारसिकों की भी कमी नहीं थी। युवराज प्रकीति का एक दुष्ट नाम था दुर्मर्षण। उसने जयकुमार की इस उपलब्धि को सहज भाव से ग्रहण नहीं किया । वह द्वेष से दग्ध होकर अपने स्वामी के पास पहुँचा और बोला- 'देव ! यह घोर अन्याय है । प्रभिमानी कंपन ने प्रापको यहाँ बुलाकर मापका घोर अपमान किया है। प्रकंपन की तो जयकुमार के गले में वरमाला डलवाने की पहले से ही योजना थी । उसे तो केवल आपका अपमान करना था। कहाँ तो माप षट्खण्ड भरत क्षेत्र के भावी अधिपति और कहाँ प्रापका अकिंचन सेवक जयकुमार । यदि मापने इसे सहन कर लिया दो आपका आतंकी पर से उठ जायगा और जयकुमार महाराज भरत के बाद में इस पृथ्वी का
युवराज का अन्याय