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जन धर्म का प्राचीन इतिहास
सेनापति जयकमार हाथी पर आरूढ़ होकर अपने शिविर की ओर जा रहे थे। भूल से उसने हाथी को गहरे जल में उतार दिया। हाथी अपनी सूड ऊपर उठाकर गंगा में आगे बढ़ने लगा । सूड का केवल अग्रभाग
पानी में नहीं डुब पाया था, शेष सारा शरीर पानी में डूबा हुआ था । वह अचानक एक गड्ढे णमोकार मन्त्र में पहुँच गया । तभी एक मगर ने हाथी को जकड़ लिया। तट पर खड़े हुए लोगों ने हाथी को का प्रभाव डबते हए देखा तो सभी घबडा उठे । सुलोचना के भाई हेमाङ्गद तथा अन्य अनेक व्यक्ति
· गंगा में कूद पड़े । सुलोचना ने अपने पति पर पाये हुए इस भयानक संकट को देखा तो उसने उपसर्ग दूर होने तक माहार-जल का त्याग करके जिनेन्द्र प्रभु का स्मरण करना प्रारम्भ कर दिया और साहस करके अपनी सखियों के साथ गंगा में कद पडी। तभी गंगा देवी का पासन कम्पित हुमा। वह मोघ वहाँ उपस्थित हई
और मगर रूप धारिणी कालिका देवी सोलर प र दिया ! नह सबको किनारे पर लाई। वहाँ तट पर उसने एक भव्य भवन का निर्माण किया तथा एक मणिजटित सिंहासन पर सुलोचना को बैठाकर उसको पूजा की। पूर्व जन्म में विन्ध्यश्री नामक एक राजकुमारी सुलोचना की सखी थी। एक दिन उसे साँप ने काट लिया। मरते समय सुलोचना ने उसे णमोकार मन्त्र सुनाया, जिसके प्रभाव से वह मरकर गंगा नदी की अधिष्ठात्री देवी हुई।
जयकुमार सुलोचना के साथ अपने बन्धु-बान्धदों और सैनिकों को लेकर हस्तिनापुर पहुंचा। वहाँ जनता ने अपने महाराज को बहुत दिनों के पश्चात् मपने बीच पाकर उनका हार्दिक स्वागत किया। महाराज जयकुमार ने
एक दिन शुभ दिन शुभ लग्न में उत्सव किया। उस में सुलोचना को पट्टमहिषी का पट्टबन्ध जयकुमार का बांधकर सम्मानित किया तथा हेमाङ्गद प्रादि को बहुमूल्य उपहार भेंट कर बिदा किया। वीक्षा ग्रहण तथा अपने भाइयों तथा अन्य लोगों को भी नाना प्रकार के उपहार प्रदान कर सन्तुष्ट
किया । जयकुमार और सुलोचना में कई भवों से प्रीति चली मा रही थी और कई भवों से पति-पत्नी के रूप में उत्पन्न होते आ रहे थे। एक दिन एक विद्याधर दम्पति आकाश मार्ग से जा रहा था। उसे देखते ही जयकमार को अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो पाया और वह 'हा प्रभावती' कहकर मूछित हो गया। इतने में कबूतरों का एक जोड़ा देखकर सुलोचना भी 'हा रतिवर' कहकर संज्ञाहीन हो गई । दासियों के शीतलोपचार से दोनों को मूर्छा भंग हुई। तभी उन दोनों को अवधिज्ञान प्राप्त हो गया। जयकुमार के पूछने पर सुलोचना ने अपने मूच्छित होने का कारण बताते हुए कबूतर-कबूतरी के पर्याय की कथा सुनाई। फिर प्रभावती और हिरण्यवर्मा के भव की कथा सुनाई।
जयकुमार और सुलोचना में परस्पर में वड़ा प्रेम था। बहुत समय तक इन दोनों ने सांसारिक सुखों का भोग किया। एक दिन जयकुमार भगवान वृषभदेव के दर्शनों को गया और उनके उपदेश को सुनकर उसके मन में संसार से वैराग्य हो गया। उसने प्राकर अपने पुत्र अनन्तवीर्य का राज्याभिषेक करके अपने भाइयों और पक्रवर्ती के पत्रों के साथ भगवान के समीप दीक्षा धारण कर ली। वह चार ज्ञान का धारी, सम्पूर्ण श्रत का ज्ञाता मौर सात ऋद्धियों का स्वामी बना और भगवान का इकहत्तरवा गणधर बना । सुलोचना ने भी ब्राह्मो गणिनो के पास दीक्षा ले ली और तप करके अन्त में प्रच्युत स्वर्ग में महमिन्द्र हुई।