________________
भरत की विदेह-वृत्ति
__सब उन्हें देख रहे थे, किन्तु वे किसी को नहीं देख रहे थे। वे तो सबसे निलिप्स केवल अपने आपको देख रहे थे । उनके मन में यकायक एक भाव आया और मानो वही सब विचारों को ठेल कर जम गया -मेरे पास अपार सम्पत्ति है, किन्तु उसकी सार्थकता तभी है, जबं कोई निर्ग्रन्थ योगी मेरे हाथ से आहार ग्रहण कर ले तब यह सम्पत्ति भी सार्थक हो जाय और मैं भी धन्य हो जाऊँ।
नगर में उस दिन अनेक मुनिराज चर्या के लिये पधारे, किन्तु मार्ग में अन्य श्रावकों ने उनका प्रतिग्रहण कर लिया। अतः राजमहल तक कोई मुनिराज नहीं आ पाये। इसलिए भरत चिन्तामग्न हो गये । वे बार-बार विचार करने लगे-क्या प्राज कोई पर्व तिथि है ? क्या जंगल से पाते समय हाथी घोड़ों से मार्ग अवरुद्ध तो नहीं
गया! अथवा दुष्ट जनो ने कोई दुव्यवहार तो नहीं किया। प्राज कोई मुनिराज क्यों नहीं पधारे यहाँ ? अथवा अतिथि को दान देने का क्या मेरा सौभाग्य नहीं है। इस विचार के आते ही उनके अन्तर में एक कसक होने लगी।
तभी उन्हें आकाश में गतिशील प्रभा-युज दिखायी पड़ा। भरत आश्चर्यचकित होकर उधर देखने लगे। धीरे-धीरे उस प्रभा-पुज ने प्राकार ग्रहण करना प्रारम्भ किया। फिर वह पुज दो भागों में विभक्त हो गया । जब तक भरत किसी निश्चय पर पहुँचे, दो तेज-गुज आकाश से नीचे प्राते हुये भरत के समीप उतरे । वे दो चारण ऋद्धिधारी मनि थे। भरत उन्हें देखकर अत्यन्त प्रानन्दित हुए । शरीर और आत्मा के भेद विज्ञानी दो योगिराज आज पधारे हैं, यह सोचकर भरत का रोम-रोम हर्ष से नृत्य करने लगा। उन्होंने पूजा की थाली मोर जलपूर्ण कलश उठाया और मनिराजों के सामने जाकर 'भो मुनिवर्यः ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ' इस प्रकार शब्दोच्चारण करके मनियों को ठहराया, फिर प्रष्ट द्रव्यों से उन्हें दर्शनाजलि देते हुये भाव शुद्धि से जल-धारा दी। तदनन्तर उनकी तीन प्रदक्षिणा देकर गुरु-चरणों में साष्टांग नमस्कार किया। फिर खड़े होकर भरत ने कहा-मन शुद्धि, वचन शुद्धि. काय शुद्धि
आहार जल शुद्ध है, प्रभु मेरे घर पधारिये । इस प्रकार कहने पर मुनिराज भरत के पीछे पीछे आहार मुद्रा में ईर्यापथपूर्वक भूमि को देखते हुए धीरे धीरे चले। भरत मन में सोचते जा रहे थे कि इन कुटिल और लम्बे मार्ग पर चलने से इन योगियों को मेरे कारण कितना कष्ट हो रहा है।
भरत मुनियों को लेकर अपने महल में पहुंचे। वहाँ सब रानियां भी आ गयीं। वे जलपूर्ण कलश, दर्पण और प्रारती लिये हये थीं। उन्होंने मुनियों की प्रारती उतार कर प्रणाम किया। वे सब मिलकर मंगल गान करने लगी। भरत ने मुनियों को उच्चासन पर बैठाया, उनके चरणों का प्रक्षालन करके प्रष्ट द्रव्यों से पूजन की। फिर नवधा भक्तिपूर्वक उनको आहार दिया । रानियाँ भरत को भक्ष्य पदार्थ देतो जाती थी और भरत मुनियों के हाथों में एक एक ग्रास रखते जाते थे । उन ऋद्धिधारी मुनियों के हाथों में जाकर नोरस भोजन भी सरस बन जाता था । किन्तु प्रात्म-विहारी मुनियों की आसक्ति आहार में नहीं थी। राजा भरत ने अपनी भक्ति से मुनियों को तृप्त किया और सुभुक्ति से उनकी जठराग्नि को तृप्त किया । तृप्त होने पर मुनियों ने नीचे बैठ कर मुख-शुद्धिपूर्वक हाथ-शुद्धि की और कुछ देर ध्यान किया। दोनों ने ध्यान पूर्ण होने पर भरत को आशीर्वाद दिया।
तभी राजमहल के प्रांगण में रत्न और स्वर्ण की वर्षा हुई। आकाश में देवों ने वाद्य-ध्वनि के साथ जयजयकार किया । फिर मुनिराज वहाँ से विहार कर गये । भरत उनके कमण्डलु लिये कुछ दूर तक मुनियों को पहचाने गये। उनके बार-बार कहने पर इच्छा न रहते हुए भी भरत वापिस आये और तब उन्होंने भोजन किया। प्रांगण में जो रत्न और स्वर्ण राशि पड़ी थी, वह निर्घनों में बंटवा दी।
सम्राट भरत के जीवन का यह दैनिक कार्यक्रम था। महाराज भरत की सभी रानियां यौवनवती थीं, मदवती थीं, रसवती थीं । उनके अंग प्रत्यंगों का लावण्य
अद्भुत था, माधुर्य नित नवीन था और सौन्दर्य अनिन्द्य था। उनके गदराये यौवन में से रस भोग में भी विराग- चुता था । रतिको लज्जितकरने वाली उनकी सुषमा थी। उन मोहनियों का मोहन-पाश पच्छेद्य
वति था। देवांगनायें और नाग-कन्यायें उनको देखकर लज्जित हो जायें, ऐसा उनका रूप था। किन्तु भरत रूप और रूपसियों के इस मेले में जाकर कभी मोहान्ध नहीं हुए। वे आत्मचेता थे, मात्मजयी