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भरत दाहूबली - पुढ
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भगवान ऋषभदेव द्वारा दी हुई हमारी पृथ्वी को भरत छोनना चाहता है। अतः उसका विरोध करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है । मुझे पराजित किये बिना भरत इस पृथ्वो का भोग नहीं कर पायेगी । तु भरत से जाकर कह देना कि अब तो हम दोनों का निर्णय युद्ध भूमि में ही होगा ।
इस प्रकार कहकर उस स्वाभिमानी कुमार बाहुबली ने दूत को बिदा कर दिया। बाहुबली युद्ध की तैयारी करने लगे ।
उधर जब दूत ने जाकर चक्रवर्ती भरत को सब समाचार सुनाये तो चक्रवर्ती की आज्ञा से समस्त सेना ने युद्ध के लिये प्रयाण कर दिया। दोनों ओर की समाययुद्ध भूमि में आमने-से लोग व्यूह-रचना करने लगे। तभी दोनों ओर के बुद्धिमान मंत्री लोग श्रापस में मिलकर परामर्श करने लगे- दोनों भाई चरम शरीरी हैं। युद्ध में इनमें से किसी की क्षति होने वाली नहीं है, केवल दोनों पक्ष के सैनिकों का ही संहार होगा। अतः इस अकारण युद्ध में जन-संहार से कोई लाभ नहीं है । इसलिये दोनों भाइयों का ही परस्पर तीन प्रकार का युद्ध हो । इन युद्धों में जो जीते, उसकी विजय स्वीकार कर लेनी चाहिए।
यह निर्णय दोनों भाइयों के समक्ष रक्खा गया और दोनों ने ही इसे स्वीकार कर लिया। दोनों ने जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध ( मल्लयुद्ध ) करने में अपनी सहमति प्रदान कर दी।
श्वेताम्बर परम्परा में दृष्टि युद्ध, वाग्युद्ध, बाहु युद्ध और मुष्टि युद्ध इस प्रकार चार प्रकार के युद्ध
माने हैं।
परस्पर युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुई सेना अब मूक दर्शक बन कर खड़ी थी । यह संसार का अभूतपूर्व श्री प्रदृष्टपूर्व युद्ध था, जिसमें अहिंसात्मक रीति से जय-पराजय का निर्णय होना था। यह हिंसा पर हिंसा की विजय थी, जिसमें शस्त्रास्त्रों का प्रयोग नहीं हुआ, रक्त की एक बूंद नहीं गिरी। ऐसा अद्भुत युद्ध संसार ने न कभी देखा था, न सुना था । सम्पूर्ण पृथ्वी का साम्राज्य दो व्यक्तियों की शक्ति पर दांव पर लगा हुआ था।
भरत पाँच सौ धनुष ऊँचा था । बाहुबली की ऊँचाई सवा पांच सौ धनुष थी। शारीरिक बल में भी बाहुबली भरत की अपेक्षा कुछ अधिक ही था। इन दोनों बातों का लाभ बाहुबली को मिला। सर्वप्रथम दृष्टि युद्ध हुआ । किन्तु भरत के पलक झपक गये । सबने इस युद्ध में भरत की पराजय स्वीकार कर ली। फिर दोनों भाई बल -युद्ध करने के लिए सरोवर में प्रविष्ट हुए। दोनों एक दूसरे पर पानी उछालने लगे । भरत बाहुबली के ऊपर जल उछालते तो वह उनको छाती तक ही जाता, जबकि बाहुवली द्वारा उछाला हुआ जल भरत के मुह र ग्रांखों में भर जाता था । शीघ्र ही बाहुबली इस युद्ध भी विजयी रहे। अब अन्तिम मल्ल युद्ध होना था। दोनों वीरों में जमकर मल्ल युद्ध हुआ। दोनों ही असाधारण बोर पुरुष थे। किन्तु दाब लगते हो बाहुबली ने भरत को ऊपर हाथों में उठाकर चक्र के समान घुमा दिया । बाहुबली ने यह विचार कर भरत को जमीन पर नहीं पटका कि ये बड़े हैं, बल्कि उन्होंने भरत को उठाकर कन्धे पर बैठा लिया ।
बाहुबली तीनों युद्धों में निर्विवाद विजय प्राप्त कर चुके थे। भरत पक्ष के लोग लज्जा से सिर नीचा किये बैठे थे, तभी एक भयानक घटना घटित हो गई। भरत अपनी पराजय की लज्जा से क्रोधान् हो गये। उन्होंने चक्ररत्न का स्मरण किया । चक्ररत्न स्मरण करते ही उनके पास श्राया। उन्होंने विवेकशून्य होकर बाहुबली के ऊपर चक्र चला दिया । किन्तु चक्र देवरक्षित होता है। वह सगोत्रज और चरम शरीरी का वध नहीं कर सकता । वह बाहुबली की ओर चला और उनकी प्रदक्षिणा देकर लौट गया । राजाओं ने इस कृत्य के लिये भरत को धिक्कारा ।
बाहुबली ने केवल इतना ही कहा- आपने खूब पराक्रम दिखाया ! और यह कहकर भरत को कन्धे से उतार कर जमीन पर रख दिया। सबने बाहुबली की विजय स्वीकार की और उनको बड़ी प्रशंसा की ।
यद्यपि बाहुबली की यह विजय निर्विवाद थी, अनेक राजाओंों ने उनकी इस विजय की प्रशंसा की, उन्होंने बाहुबली का सत्कार भी किया। किन्तु भरत द्वारा चक्र चलाये जाने से बाहुबली के मन पर उसकी भीषण प्रतिक्रिया हुई। वे विचार करने लगे- हमारे बड़े भाई ने इस नरबर राज्य के लिये यह कैसा लज्जाजनक बावली का वो राज्य कार्य किया है । धिक्कार है इस साम्राज्य लिप्सा को । यह राज्य प्राणी को छोड़ देता है किन्तु प्राणी इसे नहीं छोड़ना चाहता । मनुष्य का अहंभाव और विषयलालसा मनुष्य से न जाने