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भगवान को कैवल्य की प्राप्ति भावनाओं का पालन करना तोंरामीगाननद गुपका पालन करना, पाँच समितियों और तीन गप्तियों
का पालन करना, मुनियों के साथ रहना, उपदेश देना, शिष्यों को दीक्षा देना स्थाविर कल्प कैवल्य प्राप्ति कहलाता है। और व्रतों का पालन करते हुये एकल विहार करना, सदा पात्म चिन्तन में
लीन रहना यह जिनकल्प कहलाता है। तीर्थकर भगवान के किसी प्रकार का दोष नहीं लगता। अतः उन्हें प्रतिक्रमण, छेदोपस्थापना चारित्र धारण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे केवल सामायिक चारित्र में ही रत रहते हैं।
भगवान ऋषभदेव छह प्रकार के बाह्य तप तथा छह प्रकार के प्राभ्यन्तर तपों का सदा अभ्यास करते रहते थे। यद्यपि भगवान चार ज्ञान के धारी थे, फिर भी वे घोर तप और साधना में निरत रहते थे। इससे उनका मन स्थिर हो गया था और वे संकल्प-विकल्प रहित होकर प्रात्म-ध्यान करते थे । भगवान को संसार में धर्म की प्रवृत्ति भी चलानी थी, अतः वे अन्य मुनियों में धर्म की प्रवृत्ति चलाने के लिए स्वयं भी कुछ ऐसे धर्माचरण करते थे जो उनके लिए आवश्यक न था । जैसे स्वाध्याय । भगवान द्वादशांग के बेत्ता थे, चार ज्ञान के धारी थे। उन्हें स्वाध्याय की आवश्यकता न थी। फिर भी वे स्वाध्याय करते रहते थे, जिससे अन्य मनियों में स्वाध्याय की वृत्ति जागृत हो सके । वे नवीन कर्मों का संवर और पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा करने के लिए गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र को दृढ़ता से पालन करते थे। वे ध्यान की सिद्धि के लिए अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव का ही प्राथय लेते थे। वे पर्वत, वन, गुफा, सरितातट या शिलातल पर ध्यान लगाकर खड़े हो जाते थे । कभी महा भयकारी श्मशान भूमि में जाकर ध्यान लगाते थे।
इस प्रकार छमस्थ अवस्था में एक हजार वर्ष तक अनेक देशों में विहार करते हुए भगवान पुरिमताल नगर के शकट या शकटास्य नामक उद्यान में पहुंचे । वे पूर्व दिशा की ओर मुख करके एक वट वृक्ष के नीचे पद्मासन लगाकर ध्यान में लीन हो गये। उन्होंने शुक्ल ध्यान द्वारा क्षपक श्रेणी में प्रारोहण किया। इससे उनकी प्रात्मा में परम विशुद्धि प्रगट होने लगी। उन्होंने सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का विनाश कर दिया। मोहनीय कर्म के नष्ट होते ही ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अन्तराय कर्म भी नष्ट हो गये। इन चारों घातिया कर्मों के नष्ट होते ही उनकी मात्मा केवलज्ञान से मण्डित हो गई । वे लोकालोक के देखने वाले सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन गये । उन्हें अनन्तज्ञान, मनन्त दर्शन, चारित्र, शुद्ध सम्यक्त्व, अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग और अनन्त वीर्य ये नौ लब्धियां प्राप्त काल्गुन कृष्ण एकादशी को उत्तराषाढ़ नक्षत्र में भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ।
केवलज्ञान प्राप्त होते ही इन्द्र और देवों ने आकर भगवान को नमस्कार किया और उन्होंने केवलज्ञान महोत्सव मनाया । सम्पूर्ण आकाश देवताओं की जय ध्वनियों और वाद्यों के तुमुल घोष से व्याप्त हो गया। देव लोग पुष्प वर्षा करने लगे। प्रकृति ने भी अपनी प्रसन्नता प्रगट करने में बड़ी उदारता दिखाई। शीतल सगन्धित पवन बहने लगी । पवन में जल सीकरों ने मिलकर सम्पूर्ण जीवों को पाल्हाद से भर दिया। अाकाश से बिना बादलों के ही मन्द-मन्द वष्टि होने लगी। तीनों लोकों में सभी जीवों को आनन्द का अनुभव हमा। भगवान को जिस वट वृक्ष के नीचे अक्षय ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, न केवल वह ज्ञान ही पूज्य हा
गया, बल्कि वह वट वृक्ष भी अक्षय बट कहलाने लगा । वह वट वृक्ष भगवान के केवल ज्ञान अक्षय वट का स्मरण कराता है, इसलिये भक्तजन वहाँ की यात्रा करने लगे।
अक्षय वट सदा से तीर्थ स्थान रहा है, इस बात का समर्थन अनेक प्रमाणों से होता है। दिसंघ की गर्दावली में अन्य तीर्थों के साथ अक्षयवट का भी उल्लेख मिलता है श्रीमा
यात गिरि-अक्षयवट-मादीश्वर दीक्षा सर्व सिद्धक्षेत्र कृत यात्राणां:' इसमें अक्षयवट को तीर्थ-स्थान माना है।