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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास हिता (अध्याय ५६ श्लोक १७-१८) में मन्दिरों के २० भेद गिनाये हैं । इन भेदों में चतुष्कोण, मष्टकोण, षोडशात्री, सर्वतोभद्र भी परिगणित हैं। अग्निपुराण (अध्याय १०४ श्लोक १३-२०) में ४५ प्रकार के मन्दिर गिनाये हैं। इन में चतुष्कोण, अष्टकोण, षोडशभद्र और पूर्णभद्र मन्दिर भी हैं । अधिकांश जिनालय चतुष्कोण मिलते हैं । किन्तु कुछ अष्टकोण, षोडशभद्र और पूर्णभद्र या सर्वतोभद्र भी मिलते हैं।
साधारणत: प्रत्येक मन्दिर के पाठ अंग होते हैं-अधिष्ठान, वेदिबन्ध, अन्तरपत्र, जंघा, वरण्डिका, गुकनासिका, कण्ठ और शिखर । शिखर के तीन भाग होते हैं.-प्रामलक, आमलिका और कलश । पंचायतन शैली का मन्दिर ही पूर्ण मन्दिर कहलाता है। इस शैलो में गर्भगृह, प्रदक्षिणा पथ, अन्तराल, महामण्डप और अर्धमण्डप ये पांच प्रकार की रचनायें होता है। अधिकांश मंदिरां पर शिखर की योजना होती है। वस्तुतः शिखर कैलाश
और सुमेरु पर्वत की ही अनुकृति है। वेदी गन्धकटी की प्रतिरूप है। वेदी में सिंहासन होता है, जिस पर प्रतिमा विराजमान होती है। प्राचीन प्रतिमाओं में प्रष्ट प्रातिहार्य अवश्य अंकित किये जाते थे। क्योंकि प्ररहन्त और तीर्थकर-प्रतिमाओं की पहचान अष्ट प्रांतिहार्य से ही की जाती है। प्रष्ट प्रातिहार्य रहित प्रतिमा सिद्धों की बतलाई है। प्राचीन काल में अष्ट प्रातिहार्यों का अंकन प्रतिमा के साथ ही होता था। किन्तु आधुनिक काल में प्रतिमायें अलग निर्मित होती हैं और अष्ट प्रातिहार्यों में भामण्डल, छत्र, चमर और प्रासन पृथक-पृथक रहते हैं। शेष चार प्रातिहार्यों की रचना मूर्ति के पीछे दीवाल पर किसी न किसी रूप में कर दी जाती हैं। वर्तमान मति-विज्ञान में सौंदर्य का विदोष ध्यान रखा जाता है, किन्तु मूर्ति-शिल्प के शास्त्रीय पक्ष और भावना की पोर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता । इसको समझने के लिये हमें मति-विज्ञान के क्रमिक विकास पर एक दृष्टि डालनी होगी। (इसका सविस्तर वर्णन प्रथम परिच्छेद में किया गया है।।
वेदी पर लय शिखर, मन्दिर के ऊपर शिखर, ध्वजा, वेदी अथवा सिंहासन पीठ पर धर्मचक्र की संरचना समवसरण की रचना का स्मरण कराती है। सिंहासनासीन प्रतिमा तीर्थकर की प्रतीक है। पद्मासन या खड्गासन में ध्यानस्थ, अर्धोन्मीलित नयन, नासाग्र दष्टि, घघराले कन्तल, छाती पर श्रीवृक्ष के आकार का धीवल हथेलियों और पैरों के तलबों में मांगलिक चितये सब चिह्न तीथंकरों के स्मारक चिह्न हैं। जिनालय मनुष्य की दृष्टि से निर्मित किये जाते हैं। इसलिए जिनालयों में द्वादश सभा-मण्डप नहीं बनाये जाते, केवल एक सभामण्डप बनाया जाता है। प्राचीन काल में जिनालयों के आगे मानस्तम्भ-निर्माण की परम्परा रही है । किन्तु जबसे नगर अधिक जन-संकुल होने लगे और नगरों के बीच में स्थान की कठिनाई माने लगी, जिनालयों के प्राग मानस्तम्भ निर्माण की परम्परा कम होती गई। यही कारण है कि नगरों के मध्य बने हुए प्रायः अधिकांश जिनालयों में मानस्तम्भ नहीं मिलते । कुछ भी हो, मन्दिरों और मूर्तियों के रूप में प्राचीन काल की अपेक्षा अब कितना ही परिवर्तन क्यों न मागया हो, किन्तु उनमें समवसरण का मूलरूप अब भी सुरक्षित है।
केवल ज्ञान प्राप्त होते ही कुवेर ने इन्द्र की प्राज्ञा से समवसरण की रचना की, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। त्रिलोकीनाथ भगवान सिंहासन पर विराजमान थे। वे अष्ट प्रातिहार्य विभूति से सम्पन्न थे। उस समय
भगवान पूर्व दिशा की ओर मुख करके विराजमान थे। किन्तु दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता था भगवान का वैभव कि भगवान का मुख उनकी ओर है। चारों दिशाओं में दर्शक श्रोता बैठे हुए थे और भगवान
के मुख चारों दिशाओं में दीख रहे थे। उनके नेत्र दिमकार रहित थे। उनके शरीर से प्रभा की अजस्र किरण फूट रही थीं। उन्हें अब किसी इन्द्रिय पर निर्भर नहीं रहना था। स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्ष
और धोत्र पांचों इन्द्रियों ने अपना व्यापार बन्द कर दिया था । जो सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हो, अनन्त वीर्य और अनन्त शक्ति से सम्पन्न हो, उसे सीमित इन्द्रिय व्यापार से क्या प्रयोजन रह गया था। सूर्य का प्रकाश होने पर टिमटिमाते दीपक का कोई काम नहीं रह जाता । उनको अनन्त सुख प्राप्त था, इसलिये क्षुधा तृषा प्रादि की बाधा और अन्न-निर्भरता दूर हो गई थी। वे यात्मिक स्वतंत्रता के उस विहान में पहुंच चुके थे, जहां सम्पूर्ण पौद्गलिक आधीनतायें और अपेक्षायें छूट चुकी थी।
. चारों जाति के देव मीर इन्द्र भगवान का केवल जान कल्याणक उत्सव मनाने आये। सर्व प्रथम सौधर्मेन्द्र